स्वार्थी लेखक


 लोग लिखते क्यों हैं ? इस सवाल का जवाब आज भी संतुष्ट नहीं कर पाता है । कुछ कहते हैं कि लिखने से सुकून मिलता है, कुछ कहते हैं दर्द कम होता है। कुछ पैसा कमाने ,रोजगार की वजह से लिखते हैं। पर मुझे इन लोगों से कोई मतलब नहीं। वजह मैं ढूढ़ रहा हूं... वजह कि मैं क्यों  लिखता हूं। क्यों रास्ते पर चलते हुए जब अचानक मैं कुछ देखता हूं, रोजमर्रा की जिंदगी में जब कुछ सोचता हूं,खुश होता हूं, रोता हूं, परेशान होता हूं तो लिख देता हूं। आश्चर्य तो तब होता है जब कई बार शून्य होता हूं, कुछ नहीं सोच रहा होता हूं,,तब भी लिखने का मन करता है।

(साभार-गूगल)

   सवाल का जवाब कई बार स्थापित लोगों की छवि की ओर ले जाता है। श्रीलाल शुक्ल, काशीनाथ, प्रेमचंद, गुलजार। ये कुछ ऐसे लोग थे जो खुद तो लिखकर अपनी जिंदगी में आगे निकल लिए। पीछे छोड़ गए अपनी लेखनी और अपनी बातें। लेखनी ऐसी कि पढ़ते वक्त ऐसा नहीं लगता कि हम कुछ पढ़ रहे हैं ऐसा लगता है कि सब कुछ हमारी आंखों के सामने हो रहा है और हम चुपचाप मुंह में उंगली दबाए सब देख रहे हैं। कॉलेज के प्रोफेसर भी तो कहते हैं कि गोदान पढ़ो। बुनियादी किताब है। तो मन में लगता है कि यार ये मेरे पैदा होने से दशकों पहले मर चुके हैं पर आज  भी लोग इनके बारे में बात कर रहे हैं। शायद मैं इसीलिए लिखना चाहता हूं..कि जब मैं ना रहूं..इस भीड़ में..तब भी मैं जिंदा रहूं। अपने इन काले से दिखने वाले शब्दों के सहारे।
 मैं जब एक रात खर्च होकर इस दुनिया से चले जाऊं, तो लोग अकेले में  मेरे लिखे को पढ़कर मुझे याद करें। उनके मुंह से कम से कम 2 बार तो ये बात जरूर निकले कि काश तुम ज़िंदा होते विकास। मरने के बाद भी लोग मेरी फोटू देखें और दुखी मन से कहें कि विकास तुम क्यों चले गए?  मुझे यहां स्वार्थी ही समझा जाए..पर जब लोग ऐसा करते हुए दुखी हो रहे होंगे तो मुझे, मेरी आत्मा को सुकून मिलेगा..खुशी होगी। क्योंकि तब मन में एक सुकून होगा कि मैं ज़िंदा हूं..ज़िंदा ना  सिर्फ अपने अक्षरों में, ज़िंदा लोगों  की यादों में । इसका मतलब तो ये कि मैं स्वार्थी हूं। हां तो स्वार्थी होना अगर किसी को क्षति पहुंचाए बिना आपको खुशी दे रहा है, सुकून दे रहा है। तो ऐसा स्वार्थीपना कितना सुकून देने वाला है। सुकून कि आप मरने के बाद भी जिंदा रहोगे यादों के सागर में...लहरों की तरह। लहरें जो आएंगी....अपनी मौजूदगी दर्ज कराएंगी और फिर लौट जाएंगी जहां से वो आईं थीं। 

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