ऐ मनाली, जहर है कि प्यार है तेरा चुम्मा?


कहीं भी जाने की बात उठती है तो पेट गुड़गुड़ाने लगता है. जब तक फ्लश की आवाज न सुने ले, जूतों के फीते बांधने का कोई फायदा नहीं होता. जॉब एक कठिन निर्मम शब्द है. स्पेलिंग भले ही छोटी है लेकिन जब करने लगे तो नॉलेज के K की तरह जिंदगी साइलेंट हो जाती है. खुजली और कलंक प्रकृति की ऐसी दो कालजयी रचनाएं हैं जो लग जाए तो मिटाना मुश्किल है. मुझे खुजली घूमने की लगी. ऐसी खुजली जो बचपन में चुन्ने काटने पर होती थी, जिसे मिटाते वक्त मजा आता था.

कंजूस आदमी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि उसे जिंदगी के मजे भी लेने हैं और एक धेला भी नहीं खर्च करना. दो दिन की कारखाने से छुट्टी और एक कॉम्प ऑफ. यानी तीन दिन में मुझे सब घूमना था लेकिन शर्ते लागू में ‘कम पैसे में’ की चेपी साफ दिख रही थी. दोस्तों से पूछा कोई साथ चलेगा तो सबने छुट्टी न मिलने की पोटली रख दी. ‘फिर चलेंगे प्लान कर ले’ टाइप बातें. हुहह. रविवार की सुबह घर से ऑफिस निकला कि आज कहीं घूमने जरूर जाऊंगा. नहीं पता था कहां. मन में डर था कि यार कहां जाएगा अकेला. गूगल, दोस्त और ऑफिस में जगह डिस्कस की, तो चार जगह दिमाग में आईं, ऋषिकेष, अमृतसर, मनाली या शिमला. मनाली और शिमला का नाम आते ही खूबसूरत औरतें चूड़ा बिछिया पहने अपने ‘उनके’ साथ सफेद बर्फ पांडा के साथ खेलती और पोज देती मुझे आंखों के दाईं तरफ ‘बादल लुक’ में नजर आईं. मन बैठ गया. स्टेट्स सिंगल और जगह हनीमून वाली. यहां तो नहीं ही जाऊंगा.

एक वजह ये भी थी कि हनीमून वाली जगह है पैसे ज्यादा खर्च होंगे. वक्त कटे सेब के लाल होने की स्पीड में बीतता रहा. कुछ डिसाइड नहीं हो पाया. पर मैं झोला उठाकर कारखाने से निकल गया. उत्तर भारत की तरफ जाना हो तो आपको मूत दुर्गंध से युक्त कश्मीरी गेट बस अड्डे की तरफ कूच करना होता है. भागते कूदते कश्मीरी गेट पूछताछ में झट से अपनी एक पूछ मैंने काउंटर पर गिराई, ‘भैया कहां कहां की बसें हैं’. उधर से नशेड़ियों को जवाब दिए जाने की लय में आवाज आई, ’पागल है क्या, कहां जाना है ये बता’. होपलैस होने की प्रक्रिया उस रात समझ आई. मुंह से निकल गया मनाली. बोलने लगा हां है जाओ जल्दी, बस 10 मिनट में निकल रही है. हे भगवान, प्लान कैंसिल हो जाए, मन कोई ठोस वजह तलाशने लगा.

मनाली की आगे की सीट मिल जाएगी?
हां मिल जाएगी.
ओह शिट. नहीं नहीं खिड़की साइड वाली सीट.
हां वो भी मिल जाएगी.
ओ तेरी. अच्छा ठीक है दे दो एक टिकट. कितने हुए.
650 रुपये.

हाय अम्मा, इत्ती रकम सुनते ही गुणा 2 फॉर्मूला लगाया तो पता लगा कि बेटा 1300 रुपये आने जाने के तो यहीं हो गए. पर कमबख्त काउंटर के पास एक सुंदर लड़की खड़ी थी तो रुपये वापस भी नहीं मांगे गए. नतीजन टिकट लेकर ड्राइवर की बगल की विंडो सीट पकड़कर छह फुटिया शरीर की टांगें समेटे मैं सीधा दिल्ली टू मनाली की बस में.

मन का एक कोना घबराया था कि अकेला कहां जाएगा. कहीं बोर न हो जाए तू. पैसे भी खूब खर्च होंगे. लौटा दे टिकट. ज्यादा से ज्यादा टिकट से 50 रुपये काटेगा. वॉट्स एप्प खोला कि कोई जरूरी मैसेज आया हो कि छुट्टी कैंसिल या घर में कोई मेहमान आया है. पर सब धोखा दे गए. मनाली जाने वाली खटारा सरकारी बस ‘दिल्ली में पधारने के लिए धन्यवाद’ का नीला बोर्ड पार कर गई.

बराबर की सीट में सर्दी के डर से शराब की चंद बूंदे पी चुके सज्जन बार-बार कंधे पर सिर गिराकर मुझसे मां की ममता टाइप फील लेते रहे. रास्ते में ढाबे पर उनकी उतरी तो झट से सवाल दाग दिया, कहां जा रहे हो. जी मनाली. किसके साथ. जी अकेले. भवें चढ़ाते और उसी क्रम में हंसते हुए बोले, ‘अकेले क्यों.’ यार एक तो वैसे ही मैं खुद डरा हुआ था कि अकेले जा रहा हूं. ऊपर से ये. लेकिन अंदर की बात बाहर नहीं आने दी और एक दोस्त की बात वहां मुस्कान और इंटरव्यू वाले कॉन्फिडेंस के साथ गिरा दी, ‘एक्सपीरियेंस के लिए जा रहा हूं अकेला.’ बढ़िया कहने के साथ अगला सवाल मिला, मीडिया या एक्टिंग फील्ड से हो क्या. जवाब पाते ही उनके चेहरे पर ऑक्टोपस पॉल बाबा जैसे भाव दिखाई दिए.

राजनीति से लेकर मीडिया एथीक्सि के सवाल सुन सुनकर दिमाग में जमा दही फटने को हो रहा था. सोने की नकल ने सवालों की बौछार कम की. बस के झटकों के बीच गर्दन बार बार सुसाइड करती रही, फिर उठती रही. वक्त बीता, नीली और काली सुबह के बीच पहाड़ शुरू हो गए. बादलों को देखकर लग रहा था कि जैसे किसी ने बादलों को नील की बाल्टी में भिगो कर किसी ऊंची छत की रस्सी पर टांग दिया हो. बादलों के बीच कटा सा चांद उसी रस्सी पर टंगे मोजे की तरह मुस्कुरा रहा था. घंटें कुछ बीते और कुल्लू आ गया. बस ड्राइवर कांपती बस को छोड़कर मूतने चला गया. खिड़की से कुल्लू में बहती नदी को देखकर ख्याल आया कि जैसे किसी बड़े दैत्य ने खूबसूरत नदी को किसी ऊंचे पहाड़ से धकेल दिया हो. पत्थरों से बहती नदी के टकराने पर बचपन की वो गुल्लक याद आई, जिसमें कुछ सिक्के डालते ही हम हिलाकर देखने लगते थे कि गुल्लक कित्ती भरी.

पेशाब की अंतिम बूंद हिलाकर गिराने के बाद ड्राइवर कांपती बस में चढ गया. नजारों के बीच मैं खचर खचर फोटू खेंचता रहा. बस में चढ़ चुके लोकल लोग समझ गए, मार्केट में नया लौंडा आया है. घूमते पहाड़ों, पीछे छूटते पेड़ों के बीच अचानक उल्टी जैसा कुछ महसूस हुआ. झोले में पड़ी हिंगोली को जीभ पर रखकर बस के अंदर देखना शुरू कर दिया. पीछे से तीसरी सीट पर चूड़ा-सोने की चेन पहने जोड़ा दिखाई दिया. पत्नी-पति एक दूसरे में घुसे जा रहे थे. किसी भी सिंगल स्टेट्स लौंडे की आत्महत्या के लिए ये एक प्रेरक क्षण हो सकता है. पर मैं टिकट पर पैसे इनवेस्ट कर चुका था. दोपहर एक बजे करीब मनाली बस अड्डा आ गया. बस से उतरने से पहले ही होटलों के ‘विदेश प्रवक्ता’ आकर सवारियों को कोलंबस की तरह होटल का रास्ता दिखाने लगे. लोग भी स्वर्ग जाते युद्धिष्ठिर का पीछा कर रहे कुत्ते की तरह उनके पीछे पीछे हो लिए.

आखिर में एक प्रवक्ता मेरे पास आकर बोला, ‘सस्ता होटल चाहिए न’. ये सुनते ही मेरा शीशा देखने का फौरन मन करा. सोकर उठने के बाद मैं अक्सर गरीब लगता हूं. पर मैंने इस पॉजिटिवली लिया और कहा- हां कित्ते का है. मनाली में हल्की बारिश हो रही थी. बस अड्डे के पास ही बने प्रवक्ता के होटल पहुंचकर जो कमरा देखा, मन के कॉमर्स स्टूडेंट ने हिसाब लगाकर फौरन बताया, ’निकल ले बेटे, 1500 से ज्यादा का रूम होगा.’ मैंने दिखावटी ही सही, कमरे को जी मचलाने टाइप लुक से देखना शुरू कर दिया. कमरे के रेट पूछने पर प्रवक्ता ने पहले हजार और सेंसेक्स की तरह धड़ाम से गिरकर 500 रुपये बोल दिए. मेरे बजट और मंशा 500 की भी नहीं थी. मैंने बेशर्मी से कहा, ’मेरी शक्ल देखकर लगता है 500 दूंगा.’ तो कितने दोगे आप, ये बताओ? भाई मेरे को होटल में ज्यादा रुकना नहीं है, सिर्फ घूमना है. अकेले हूं बैग रखना है और रात को सोना है. बस’. ठीक है लाओ 350 रुपये. लेकिन ऊपर का कमरा लेना होगा. ऊपर का कमरा मलतब जहां लकड़ी की छत थी. कोई और कमरा नहीं था. लेकिन उसकी छुपी खूबसूरती ये थी कि उस कमरे से वादियां कहीं ज्यादा चुंबकीय लगती थीं. 350 रुपये देते ही मन में एक टीस सी उठी कि अबे विकास 200 रुपये बोल देता तो शायद वो तब भी तैयार हो जाता. करा लिया 150 का नुकसान.

सुबह से टट्टी नहीं गया था. आ भी नहीं रही थी. पर लगा जाना सही रहेगा, घूमने के दौरान लगी तो कहां रास्ते में मुर्गा बनता फिरूंगा. ‘शिट’ सीट पर कुछ वक्त गुजारने के बाद पानी के लिए जैसे ही फ्लश चलाया. ऐसा लगा, जैसा किसी ने तसरीफ की मुसलमानी कर दी हो. ठंडा पानी इतना कि फौरन उठ न गया होता तो वाया तसरीफ दिमागी बुखार चढ़ सकता था. इसके बाद नहाने से मैंने परहेज करना मुनासिब समझा.

शर्ट बदलकर बिना देरी किए मैं होटल से निकल लिया. भूख सी लगी तो खाने के लिए सामने बने एक विशालकाय रेस्टोरेंट में घुस लिया. होटल के विशालयकाय और महंगे होने का ज्ञान तब हुआ तब शाही पनीर 180 रुपये, दाल 110, और एक रोटी शायद 20-25 रुपये की एक लिखा देखा. अचानक भूख मर गई. मेरा मन स्नैक्स की तरफ भागने लगा. मन, जेब और पेट का सौदा 65 रुपये की टिक्की पर सेट हुआ. जब पैसे बचते हैं तो पेट भरने जैसी डकार खुद आ जाती है. मनाली के बारे में कुछ जगहों के नाम के अलावा कुछ पता नहीं था. मैंने किसी सेट दिमाग के घूमना शुरू किया. हल्की बारिश हो रही थी. पहाड़ों को होटलों की छतों के पीछे खड़े देखते हुए मैं चलता रहा. आगे जाकर किसी से पूछा इस रास्ते पर क्या है घूमने का, तो जवाब में हिडिंबा टेम्पल सुनाई दिया. मंदिर पहुंचा तो जमी बर्फ करीब से देखने को मिली. मंदिर खूबसूरत से लंबे पार्क को पार करके आता था. नए जोड़े के चिपककर चलने में अचानक संस्कार की चुनरी झलकने लगी थी. मंदिर की दीवारों पर बारहसिंहा की सींगे लगे हुई थीं. कुत्ते मंदिर के चबूतरे पर संसद की पीछे की सीटों पर बैठे सांसदों की चुप और सुस्ताते से दिखे. बिना नहाए मंदिर में जाने से डर लगा. नई देवी जी हैं. ऐसे जाना ठीक नहीं रहेगा. पर लगा इत्ती दूर आकर न गया तो कहीं कुछ उल्टा शुल्टा न हो जाए. आस्तिक और अंधविश्वास के बीच मैं टोबा टेक सिंह की तरह खड़ा रहा और माफी भाव मन में लिए मंदिर के अंदर हो आया.

मंदिर से नीचे की तरफ एक रास्ते पर चला तो थोड़ी दूरी पर क्लब हाउस का बोर्ड दिखाई पड़ा. पैदल चलने के दो फायदे हो रहे थे. एक तेजी से भागते रहने से सर्दी नहीं लग रही थी, दूसरा हर जगह ऑटो के पैसे बचाने की खुशी मेरी ट्रिप को चुम्मे जैसी खुशी दे रही थी. बीच बीच में कहीं भी बैठकर चुपचाप एकटक आसमां को देखते हुए भीतर की गाद खुद-ब-खुद निकल रही थी. दफ्तर की कांच की दीवारों में पॉपकॉर्न की तरह उछलते रहने से बहुत दूर मैं खुद को सही गलत के पार महसूस कर रहा था. क्लब हाउस की तरफ जाते हुए बारिश तेज हो चली थी. क्लब हाउस पहुंचा तो देखा कि दिल्ली DL-5C टाइप नंबर्स की गाड़ियां लगी हैं. रिवर राफ्टिंग बारिश की वजह से नहीं हो रही थी. क्लब के अंदर स्नूकर्स, बिलियर्ड्स और घोस्ट हाउस में ‘ओह या, ओह येस’ सुनकर मुझे खुद के देसी होने पर गुमान हुआ. दिल्ली में जो काम किया जा सकता है, उसे ये लोग इन खूबसूरत पहाड़ियों में कर रहे थे. बंद दीवार के अंदर 10 मिनट में मेरा दम घुटने लगा.

क्लब हाउस से बाहर निकला तो बारिश तेज थी और पेट में पड़ी 65 रुपया टिक्की हाथ खड़े कर चुकी थी. भूख लगने लगी. क्लब हाउस से निकलकर साउथ इंडिया ढाबा टाइप कुछ सुंघाई दिया. अंदर जाकर बेहद शांत, पहाड़ी मुस्कान लिए ईश्वर सिंह जी दिखाई दिए. वही इस होटल के मालिक सीसी बावर्ची थे. मैन्यू को दाईं तरफ से देखने के दौरान कुछ भी 60 रुपये से ऊपर न दिखने पर मैंने बढ़े हौसले के साथ मैन्यू के बाईं तरफ देखना शुरू किया. होटल में अकेले बैठे मैंने मैगी और चाय के लिए बोल दिया. ढाबा नदी के ठीक किनारे बना था. नदी, पहाड़, हवा और बारिश सब साफ दिख रही थी. इंतजार करते हुए मैंने बारिश को थोड़ा मोटा और उजला महसूस किया. रसोई में मैगी को शिद्दत से बनाते हुए ईश्वर सिंह जी के पास जाकर पूछा, अंकल क्या ये बर्फ है (मुझे शक था कि शायद मेरे नींद आ रही है या तबीयत खराब हो रही है.) अंकल फौरन बोले, हां बेटा ये बर्फ गिर रही है. भगवान कस्सम, अचानक लगा जैसे चार लड़कियों ने एक साथ प्रपोज कर दिया हो. खचर खचर फोटू खेंचने के बाद मैं शांत भाव से बर्फ देखता मेरी आंखों के सामने एक सच बरस रहा था. जिसका कोई मकसद, छल नहीं था. इमोशनल लोगों को जिंदगी में कम से कम एक बार गिरती बर्फ जरूर देखनी चाहिए. गिरती बर्फ हमें त्याग और पाने की नई परिभाषा रचने में मदद करती है.

बर्फ को होटल से निकलकर मैंने पूरा भीगते हुए महसूस किया. लोग मुझे घूर रहे थे. मैं न जाने क्यों खुश था. वो ऐसा वक्त था जब मैं किसी को याद नहीं कर रहा था. खुद को गले लगाने का मन था. घुटने के बल बैठकर हाथ फैलाकर हंसने और रोने का मन था. वजह बेवजह थी. मैं पूरा भीगने के बाद मॉल रोड की तरफ निकल पड़ा. बर्फ तब भी गिर रही थी.

प्रेमी जोड़े बारिश और बर्फ से बचने के लिए छातों और छ्तों का सहारा लेने लगे. लेकिन मैं बिना शराब पिए नशे में हो चुका था. मॉल रोड की सड़क पर बर्फ से भीगते हुए मैं ‘अमूल माचो’ के एड की तरफ बड़े आराम से चलता रहा. हंसता रहा. फोटू लेता रहा. भरे पानी पर उछलते हुए छपाकछई करता रहा. मेरा को ये सब करता हुए देख एक बिछिया पहनी भाभी जी मुझे श्रद्धा भाव से देखती नजर आईं.

देर रात होटल पहुंचा तो सारे कपड़े, जूते भीग चुके थे. कमरे में हीटर की सुविधा नहीं थी. सारे कपड़े उतारे तो शरीर को मैंने वाइब्रेशन मोड में पाया. जूतों को सुखाने के लिए कमरे के पर्दे निकालकर उनमें घुसेड़ दिए और मोजे, शर्ट कमरे और गुसलखाने में लगे बल्ब पर टांग दिए. होटल की रजाई पर मुझे कुछ दाग दिखाई दिए, जिसके बारे में समझने के लिए इत्ता काफी था कि मैं ‘मनाली’ में था.

झोले से एक गर्म सदरी निकालकर रजाई से पहले अड़ाते हुए मैंने अपना ब्रह्मचर्य बनाए रखना का ढोंग किया. सोते वक्त डर लगा कि रात में कोई आ गया तो कोई सामान न ले ले. फोन और पर्स मैंने तकिए के अंदर छिपा दिए. एक ख्याल ये भी आया कि कोई आकर मेरा ही कांड कर गया तो मैं क्या करूंगा. हनुमान चालीसा सच में डर दूर करती है.
अगली सुबह मंगलवार की थी. पहाड़ों का उगता सूरज और सुबह देखने का मन था तो मैं जल्दी ही होटल के कमरे से निकल लिया. होटलों के कमरों की खिड़कियों के नीचे शाम को डूबे सूरज की दास्तां बयां करते हुए कंडोम दिखाई दिए. धार्मिक इंसान को मनाली में सुबह सड़क देखते हुए चलने से बचना चाहिए. नंगे पैर होने पर ऐसा न करें, पैर पचपचा सकता है. पहाड़ों, बर्फ और बारिश से डरते.. छिपते सूरज को देखकर मन भीतर तक मुस्कुराने लगा. रोहतांग बाई पास बंद था तो मैं एक टैक्सी में लटककर सिलॉग वैली पहुंच लिया.

बर्फ की चादर पहने पहाड़ कहीं कहीं अपना हरा जिस्म दिखा रहे थे. कुछ बड़े सफेद पहाड़ों के पीछे कारें जैसे जैसे भाग रही थीं, पहाड़ वैसे वैसे ही इठलाते हुए दूर हुए जा रहे थे. इंसान और प्रकृति की ये पकड़मपकड़ाई देखकर घुटने के नीचे के हिस्से में सिहरन पैदा होने लगती थी. गाड़ी से उतरकर दूर तलक सिर्फ उजले पहाड़ खुद में अकेले अकेले मगर एक दूसरे का हाथ थामे खड़े नजर आए. नए शादी के जोड़ों की प्रचुर मात्रा बर्फीले पहाड़ की रेहड़ी पर सजी सी नजर आई. सब बहुत खुश थे. बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे को मार रहे थे. तभी मुझे एक पहाड़ के लगभग अंतिम छोर पर एक वीरान अकेला पेड़ दिखाई दिया. मेरा वहीं जाने का मन किया. ऊपर की तरफ जाते हुए रास्ते में कहीं भी अचानक से पैर धंस जाता था. बर्फ से पैर निकालने का सुख, हवा में उछलने जैसा होता है.

 ऊपर पहुंचते हुए पीछे छूटते पैर के निशां देखकर खुशी हो रही थी. करीब 20 मिनट बाद मैं कई हनीमून कपल को लांघते हुए लगभग पहाड़ की चोटी पर पहुंचा. वहां से वीरान खड़ा पेड़ करीब 20 मीटर की दूरी पर होगा. चुपचाप उस बर्फीले पहाड़ की ऊंचाई पर पहुंचकर मुझे सिवाय लोगों के सब कुछ उजला नजर आ रहा था. जमी बर्फ पर फिल्मी हीरो की तरह कुछ दिल के करीबियों के नाम लिखे. कई प्रेमी जोड़ों के नाम लिखे, उनके नाम लिखते हुए मुझे खुद के पूरे होने का एहसास हुआ.

सूरज एक पहाड़ की आड़ से दूसरे पहाड़ की बालकनी पर कूद गया. हनीमून कपल एक दूसरे का हाथ थामे और खच्चरों का सहारा लिए ऊपर आने लगे. वीरान पेड़ के पास खड़े होकर पोज देने लगे. सेल्फी लोगों को करीब ला रही है. फोटू पोज सिमटे और एक जैसे हो चले हैं. जोड़े बर्फ के गोले एक दूसरे को मारते हुए हनीमून पर आने की परंपरा निभाने लगे. बर्फ के पहाड़ पर मैं लेटा हुआ शून्य को सोच रहा था और यकीनन खुद को ज्ञानी बाबा समझ रहा था. जो तप, योग, शांति के अलावा पता नहीं क्या करने उस चोटी पर आया था. अब अकेले जाने वाले लोगों के लिए मिशाल पैदा करने की खुशफहमी लिए मैंने जेब से अंगोछा निकाला और बर्फ भरकर हवा में उछाल दिया. हवा में बर्फ के गोले मुझ पर आकर गिरते रहे. खुद के मन और शरीर पर जमी धूल उतरती रही.

जेब में पड़ा कैमरा निकाला और खचर खचर शुरू हो गया. हनीमून कपल्स मेरे पागलपन को देखते हुए सेल्फी ले रहे थे. प्यार में यकीन करने के नाते मुझे लगा कि इन लोगों को सेल्फी मुक्त करना होगा. लिहाजा एक हनीमून कपल से कहा, लाइए मैं आप लोगों की तस्वीर ले देता हूं. उधर से फौरन जवाब मिला, ‘सो स्वीट ऑफ यू, ऐ जी, दो न फोन’. दोनों पोज देने लगे और मैं खुद की पोजिशन चेंज करते हुए तस्वीरें लेने लगा. फोन पकड़ाते हुए गहरी लाल लिपिस्टिक लगाई भाभी जी ने सवाल दाग दिया, आप अकेले आए हैं या बाकी लोग नीचे हैं? जी मैं अकेला आया हूं. हनीमून कपल ने होंठ और आईब्रो के कोने एक साथ उठाकर कहा, ‘अकेले और वो भी मनाली!’ मन किया कि बोल दूं, नहीं तो क्या तुम्हारी तरह हनीमून तक का इंतजार करूं. पर लगा तस्वीरें ली हैं, शालीन बना रहूं.

‘बहुत सही’ और चेहरे पर मेरे लिए सम्मान लाते हुए भाभी जी बोलीं, ‘लाइए हम भी आपकी तस्वीरें ले लेते हैं.’ बस फिर तो जो मैंने पोज दिए, भइया को भाभी के फोटू लेने के आईडिया पर अफसोस होने लगा. फोन, अलविदा और कुछ घंटे बर्फ में बिताने के बाद मैं सिलांग वैली से नीचे लौट पड़ा. दिन मंगलवार और दोपहर के 3 बज रहे थे. मनाली में घूमने की कोई बड़ी जगह बची नहीं थी. होटल में एक और दिन का किराया देने का मन नहीं था. बुधवार की छुट्टी बाकी थी. होटल से झोला लेकर बस अड्डा पहुंचा तो 3.30 की अमृतसर की बस दिख गई. बस की बाहरी सुंदरता कीचड़ से धधक रही थी. मनाली में आने के लिए धन्यवाद का हरा बोर्ड कुछ देर में पार हो गया. मेरा अकेलापन और पुरानी आदतें बर्फ में ढककर मर चुकी थीं. मैं खुद में पूरा हो गया था. हम कभी अकेले नहीं होते हैं. बशर्ते हमारा मन बातूनी, जीने की ख्वाहिशों से भरा और ज़िंदा होना चाहिए. मैंने पीछे पलटकर देखा तो लगा जैसे बर्फीले पहाड़ों ने मेरे माथे पर एक गीली सी चुम्मी दी है. चुम्मी और अकेले मनाली में घूमने के बाद मेरे मुस्कुराते मन से निकला, 'ऐ मनाली, जहर है कि प्यार है तेरा चुम्मा'?

टिप्पणियाँ

  1. मजेदार यात्रा वृतांत जिसे एक सांस में ही पढ़ गया...

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  2. शानदार

    बाँध लेने वाली शैली

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  3. बहुत खूब..... ऐसा लगा जैसे मैं पढ़ नहीं रहा.... शब्दों के साथ बरसाती नदी सा वेग में बह रहा हूँ ....... धन्यवाद

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  4. बेहतरीन यात्रा वृतांत. हर वाक्य तीखा, जोरदार .

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  5. Wah Bhai ..Kya likha hai laga ki rasto me aap ke sath ham bhi hamsafar the..

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  6. शैली अच्छी है. फूहडता से बच सको तो भविष्य उज्जवल है.

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  7. Very nice n inetresting... memorised my honeymoon visit to manali...

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  8. जवाब नहीं. लाजवाब. आनंद जी ने FB पर शेयर की तो आपके ब्लॉग का पता चला. क्या लिखते हो यार. वाकई गज़ब.

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  9. Mere keyboard mein hindi ki suvidha nahin dikhi, lekin roman script mein to tippanni kar hi sakta hoon... bahut badhiya lekhan shaily hai bhai! Jame raho!

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  10. 'विट' का संपुट लगाकर मजेदार लिखता है यह लड़का। रात का जागा और भोर का भागा लगता है। रोजाना अपनी लाइफ की कमेंट्री लिखने लगे तो ऐसे कई यात्रा वृतांत बन जाएंगे।

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  11. कल तीन घंटे तक टिप्‍स फॉर राइटिंग ह्यूमर सर्च कर करके गूगल का पसीना निकाल दिए। ट्विटर पर वरुण भइया की टाइमलाइन पर भी कोच्चन मार आए। लेकिन समझ नहीं आ रहा था ऐसा कैसे लिखें जिससे पढ़कर लोग परेशान ना हों बल्कि मुस्‍कुराआएं। आज तुम्‍हारा आर्टिकल पढ़े तो लगा कि बस यही तो है। मजा असल होने में है। साला बहुत बाल गिराए हैं मनी शंकर अय्यर टाइप लि‍खने में। अब खुद का जिएंगे और खुद का लिखेेंगे। बहुतई धन्‍यवाद विकास भइया।

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  12. लाजवाब. बेहतरीन. गजब. पहली लाइन से लेकर आखिरी लाइन तक सब कुछ कसा हुआ. लिखने का अंदाज अद्भुत.

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  13. ऐसा लग रहा है मैं भी मनाली हो आया हूँ। बिल्कुल अपने तरीके से। आज पता चला हम एक ही स्वभाव के हैं। बिल्कुल एक जैसा ही सोचते हैं। थोड़े कंजूस और ज़्यादा लेमनचूस टाइप। लग रहा है अब कभी मनाली घूमने जाऊँगा तो उतना मजा नहीं आएगा। लगेगा दूसरी बार आया हूँ।

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  14. वाह..... !! ललित जी धन्यवाद..आपके ब्लॉग तक पहुँचाने के लिए.

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  15. अहा!!!! अद्भुत!!!! लग रहा है आपके साथ साथ मैं भी घूम रहा हूँ.. ग़ज़ब लिखे हैं भईया...

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  16. सही लिखे हो भाई..लिखते रहो..एक बेहतरीन व्यंगकार दिखता है मुझे तुममे |

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