घुसपैठिया बचपन कहीं का!

बैडमिंटन की गोल गद्दी वाली चिड़िया. क्रिकेट की किल्ली. वो गंदे से संतरी रंग की गुल्लक, जिसे मैं थोड़ा सा खनकने पर फोड़ देता था कि शायद पचास रुपये हो गए हों. पर निकलते थे 37 या 23 जैसे टूटा आंकड़ा. मां इस टूटे आंकड़े को अपने बटुए से पैसे निकालकर रुपये बना देती थी. मुझे वही नोट बनाने वाली गुल्लक चाहिए.

एक हाथ को हवा में लहराते हुए मुझे खुद में एक पवन चक्की चाहिए. जिसकी धड़धड़धड़ की आवाज भी मैं मुंह से निकाल सकूं. और स्पीड कम या ज्यादा भी खुद कर सकूं. एक वो जो 'ऊंचनीच का पापड़ा' होता था. जिसमें सड़क पर बैठके रोटी बनानी होती थी. मुझे वो रोटी बनानी है. डाॅमिनोज़ की मोटी सब्जी चिपकी रोटी निगल निगलकर थक चुका हूं.

अब पीठ पर कोई अंटी बनाकर घूंसा नहीं मारता. न मैं अब सड़क छूकर धरती मां की कसम खाता. अब तो सड़क पर कुछ गिर जाता है तो मैं उठाता भी नहीं हूं. 'उठने' के दिखावे से खुद को तराश चुका हूं. लड़कियों को मम्मी की सेंट लगाकर ग्रीटिंग देना भी बंद कर दिया है. पड़ोसियों की चौखट पर रखे दीयों को चुराकर उसमें चिड़िया के लिए पानी भी तो नहीं भर पाता हूं.

एटीएम का पासवर्ड याद हो गया है. बस कटवा पहाड़े भूल गया हूं. मोबाइल में कैलकुलेटर है. सब गिनके बता देता है. ये गलतफहमी पाल ली है.

मुझे क्रिकेट की किल्ली और वो सब वापस चाहिए. जो था. और अब नहीं है. पर इसके लिए मैं अपने बचपन का खुद में लौटना नहीं चाहता हूं. मैं ये सब बिना बचपन के दखल दिए खुद में चाहता हूं. ये जो अभी मुझ में चल रहा है.  बचपन का बुढ़ापा और जवानी का बचपना. सब इसी आज में चाहिए. बचपन को इत्ती इंम्पाॅरटेंस नहीं देना चाहता हूं. क्योंकि ये सब जो मैं आज चाह रहा हूं ये हमें बचपन ने नहीं दिया. हमने बचपन को दिया. और देकर निकल आए बचपन के बुढ़ापे और जवानी के बचपने की उम्र में कहीं.

मैं अपना सब वापस लेना चाहता हूं जो मेरा है. जो मैं हूं आज भी. ताकि मुझे खिलखिलाकर हंसते हुए चिढ़ा न सके वो. घुसपैठिया बचपन कहीं का!

टिप्पणियाँ

  1. बड़पपन अपने ही नहीं दुसरो के बचपन से भी बलात्कार कर डालता है ।

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  2. बड़पपन अपने ही नहीं दुसरो के बचपन से भी बलात्कार कर डालता है ।

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