बची से ज्यादा कुची सी खुशियां मनाऊं कैसे?

वही रूखी सूखी बातें
वही गिला, गीला सा सीना
नई रुसवाइयां दूं कैसे
खुद के खाते में बची से ज्यादा कुची सी खुशियां मनाऊं कैसे?

अब जबकि बचे कुछ दिनों के कुछ ही दिन बाकी हैं. की थीं जो बड़ी-बड़ी बातें. वो पूरी होनी बाकी हैं.

कुछ कहूं तो कैसे
उसे रोकूं तो कैसे?

तब जबकि मेरा आधा मन अब भी चाहता है. तब जबकि मेरा आधा मन खुद में पूरा आका है. मैं किस मन को अपना पूरा मानूं. ये जो खुरच रहा है तेरे जाने से... इसे मैं क्यों ही अपना मानूं.


ऊपर की लाइनें भूल चुका हूं
ये झूठ खुद को कह चुका हूं

वही रूखी सूखी बातें
वही गिला...गीला सा सीना!

बाहर से आए तेज़ तीर अब सीनों में नहीं चुभते. भीतर उग बैठे हैं तीर, वो बाहर नहीं निकलते!

इश्क़ इक आग का दरिया है जो ये तो... आओ दिल्ली की सर्दी में दरिया किनारे बैठ आग तापते हैं.



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