मुंह जले सूरज को रात की राख दिखाएंगे

अंधेरा कुछ ज़्यादा है. आवाज़ पता नहीं किसकी है पर पता होने का एहसास खुशी देता है. इसलिए 'टिड्डा बोल रहा है' कहने में कोई हर्ज़ नहीं. गांवों के गलियारे रात में कितने अकेले होते हैं.

बांसकोठियों की आवाज़ इंसानी खराश सी लगती हैं. कुत्तों या लकड़बघ्घों की आवाज़ कहीं किसी के करीब पहुंचते हुए पीछे छूट जाती है.

पीछे छूटती हुई आवाज़ हमेशा खनकती रहती है. आगे कितनी ही नई आवाज़ें आ जाएं, छूटी हुई आवाज़ सबसे ज्यादा याद आती हैं. 'बताती हूं...बताती हूं' वाली आवाज़ अब कुछ नहीं बताती. पर जितना बताया था, वो बचा है. बची है आखिरी मिली निगाहें.

किसी घास के मैदान पर बैठना भी कोई बैठना हुआ? यही सोचते, घास खोदते एक लंबा बाल निकल आया. तुम्हें टूटते बालों की फिक्र करनी चाहिए थी. ये पाश की घास सा फिर उग आया है... तब जबकि मैं इस मैदान पर अकेला बैठा हुआ हूं. ये ज़ालिम साथ देने नहीं, चुभने आया है बस.


एक शाम तैयारी करके तारों की माचिस से इस रात को जला देंगे. सुबह सूरज दुनिया को जलाने की कोशिश करता जो उगे. और देखे तो उस मुंहजले को बस रात की राख दिखे. शायद फिर हो ये कि उस रोज़ से सूरज़ डूबना बंद कर दे. बस ठहर जाएगा पूरब और पश्चिम के बीच कहीं. तब मैं उस घास के जलने का इंतज़ार करूंगा.

बालों के जलने की आवाज़ सुनी है तुमने?
जलते बालों से चूमने की आवाज़ निकलती है. गर्दन पर चूमना सीने को गले को भर देता है, जिसे गुटकने पर गाढा सा कुछ सीधा किसी पाइप से दिल तक पहुंच जाता है.


सबसे दूर हुए, किसी के न करीब हुए
एक ही ज़िंदगी, हर बार अपने ही रकीब हुए!



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