जगजीत सिंह जी और चित्रा का 'पंजाबी टप्पे' एक बार फिर लूप में सुन रहा हूं. दो साल से कुछ महीने के गैप में ये गाना पता नहीं कैसे बार बार आ जाता है.
फिर दस पंद्रह दिन साथ रहता है या शायद देर तक! भगवान भला करें 1979 में बीबीसी रेडियो वालों का, जो मेरे पैदा होने से पहले मेरा होरलिक्स तैयार कर गए.
जगजीत जी को इस गाने में देखने सुनने से पहले मैं दिल टूटने के बाद काम आने वाला बंदा मानता था लेकिन इस गाने में जैसे वो 'भर लेने के भाव' से दांत भींचते हैं... लगता है यार प्यार करना तो इस आदमी से सीखा जा सकता है.
ये तो प्यार के बाद वाला नहीं, पहले और बीच वाला बंदा है. गाने के आखिरी मुखड़े से पहले जगजीत जी चित्रा को हाथ के इशारे से रोकते हैं और वो भी अचानक रुक जाती हैं जैसे रुकने के लिए कबसे इंतज़ार कर रही हों.
फिर जब दोनों एक साथ हंसते हैं लगता है कि अपनी दादी की तरह बन जाऊं और बोलूं- 'खुब खुशि रहओ बच्चा.' इस गाने में जब जगजीत इकदम स्कूल के लौंडे की तरह छेड़खानी करते हैं. लगता है स्क्रीन में घुसकर बोल दूं-ओए जग्गी, भाई है तू मेरा.
'कोई फरियाद मेरे दिल में बसी हो जैसे' वो यही कि इस आदमी को ज़िंदा कर दूं और गोद में ले जाकर कोक स्टूडियो में बैठवा कर बोलूं, 'जगजीत जी गाइए न, चित्रा जी भी आती होंगी.' और जब चित्रा आएं तो वो दोनों साथ में गाएं 'ऐथ्थे प्यार दी पूछ कोई ना... मज़ा प्यार दा चख लांगे..हुंड़ अस्सी मिल गए हां'
और बिन बताए गायब हो जाएं. कहीं दांत भींचकर हंसते हुए एक दूजे को गले लगाने के वास्ते...एक दूजे को 'खसमानूखा' जैसा कुछ कहते हुए!
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