रात आकर खड़ी, लगाले इसको हथकड़ी

कहां हँसना है
कहां रोना है
ये तय करुंगा मैं
न कि तू
बिना डिग्री, काले कोट के ओ जज
मत पैदा कर अपनी बौद्धिकता का बज

पूमा का जूता पहनकर तू मुझको मत बतला
साम्यवाद की चटनी से तू पिज्जा मत खिला
एक रात अकेली काटी है
सिलवट में तारों की चटनी बाटी है



तू लोहड़ा लेकर सर अपना फोड़
अपने ही फर्जीवाड़े का तू कर भंडाफोड़

आगे क्या देखता,
पीछे भी अंधा मोड़ है
ज़िंदगी चूमे रहने का मौत ही एक तोड़ है

फिर भी तू करता खुद से कितनी व्याख्या
बेचैनियों का सुनाता दिन रात वाक्या
मत कर तू इतनी नौटंकी पे नौटंकी तू
हो गई शाम... लिख कविता जा होके सनकी

बिल्ली की झूठी कटोरी में ज़हर घोलके थोड़ा पीजा
खुद को रास्ता काट-काट मरने दे..
सांसों को बस...लिए लिए मत जिए जा

रात है आकर खड़ी
तू लगाले इसको हथकड़ी
सूरज जो सुबह साला आएगा
तेरा मुंह का झाग देख लौट जाएगा

लिखकर जइयो तू मत चिट्ठी
दुनिया से तू बिन बताए कर जइयो कट्टी

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