यात्राएं: नई पुराने का हिसाब मांगती हैं...


एक बस्ता है एक हम
जूते पहने हुए
अतीत के सहमे हुए
कल में जाते हुए
आज को मनाते हुए

ज़िंदगी उलझी सी रहे तो शुरू कई तरह से किया जा सकता है.

रास्ते कई रहें तो कहीं भी जाया जा सकता है. मगर कहीं भी  जाने में अपनी पसंद का एक रास्ता तो छिपा ही होता है. बेमन चला गया जैसा कोई मन नहीं. तो जो छोटा सा मन होवे है न, जिसकी छोटी उंगली पकड़कर हम बड़े मन पा लेते हैं. वो छोटा सा मन साल 2018 में कई जगह ले गया. जाई हुई जगहों पर लिखना था. पर जाई हुई जगहें भीतर से जा ही नहीं पाईं कि याद करके लिखा जा सके.

यादों को लिखने के लिए सिवाय याद के कोई स्किल नहीं चाहिए होता है, शायद इसलिए.

ब्रह्मापुत्र किनारे की मुहब्बत

अभी जब महीना और साल ख़त्म है. तो याद आए पुराने फोल्डर और ये बात कि अपना कितना कुछ कहना रह गया. मगर अब लिखने का उतना मन नहीं होता. अभी मन को पकड़ बैठाया है कि 'जाता कहां है दीवाने, सब कुछ यहां है सनम.' हैशटैग- लिखना.


कहानियों में एक रानी जली. रानी के जलने से पहले किसी को प्रेम कहानी दिखी तो किसी की चीखें.
चित्तौड़गढ़

मुझे फरवरी में चित्तौड़गढ़ में इनमें से कुछ नहीं दिखा. चित्तौड़गढ़ किले के भीतर कुछ सुनसान सी जगहें हैं. जहां की तस्वीरें बहुत खराब आती हैं. एक शिवलिंग है, पहाड़ी से पानी गिरता हुआ सा. बगल में मछलियां हैं. या वो जगह जहां से खिलजी के आने की कहानियां बताई जाती हैं. ऐतिहासिकता तो किताबें बताएंगी, मैं बताता हूं सुकून. इधर बहुत ग़ज़ब का मिलता है. ग़ज़ब लिखने में ऐसा नहीं लगता कि जैसे सुकून थोड़ा कम हो गया है? तो इसे सिर्फ सुकून समझिए. सिर्फ सुकून.



आगे बढ़ा तो मध्य प्रदेश मिला.

भोपाल...झील

इंदौर... वो मार्केट जो मार्केट बंद होने पर लगती है.

उज्जैन...हर हर महादेव.

और मेरा... नहीं मायाविनी का मांडू.

मैंने मांडू देखने के लिए बरसात या किसी मायाविनी का इंतज़ार नहीं किया. मैंने धूप में तपते मांडू को देखा और चित्तौड़गढ़ की जलने वाली कहानियों से जो चिंगारी बची थी, उसे मांडू की सूखी घासों को जलाने में खर्च कर आया. ऐसा लगा कि जैसे मंडी हाउस में स्वदेश दीपक की सिगरेट को किसी बरसात में जलाकर आया हूं.

मांडू

लौटना पर इतनी कविताएं, कहानियां और लाइनें लिखी गईं कि  लगा अब लौटना भी मौलिक नहीं रह गया. इस कोशिश में कि लौटा हुआ सिर्फ़ मैं हो सकूं. मेरे लौटे में कोई दूसरा शामिल न रहे... ये सपना लिए मैं लौटने लगा. महादेव की लगाई भस्म माथे पर इस कदर थी कि शांत करने को किसी सूफी की दरगाह सही जगह लगी.

अजमेर

अजमेर. ख्वाजा जी.

पता नहीं कौन था. क्या था. क्यों मिला, कहां रहा. पर जैसा निस्वार्थ सुकून अजमेर ने दिया..लगा कि अपनी ज़िंदगी का सबसे मेहनत से और ईमानदार प्रोफाइल लिखूं.  'तेरे दरबार में ख्वाजा नूर तो है देखा.' ख्वाजा जी वाला अपना ए आर रहमान भी तो कह गया है.

'In any profession when you loose yourself that's when you become the Art.'

अजमेर से दिल्ली आओ तो जयपुर मिलता है. महीना कोई भी रहे, इसका नाम गुलाबी ही रहता है. मगर कोई गुलाबीपना दिल्ली से ही लेकर गया हो तो...तो कुछ नहीं. राजस्थान, हरियाणा की सुबहों को देखते और रातों को बसों की सीटों पर टटोलते हुए सूरज- चांद की गवाही लेकर दिल्ली लौट आना चाहिए.


जयपुर

ताकि नई जगहों पर जाया जा सके.

ये प्रेम और ट्रैवलिंग ही हो सकती हैं, जहां आपके भीतर सेल्फी खींचने की हिम्मत आ सके. अपना चेहरा पास  से देखते हुए कैद करने के लिए कोई एक्सट्रा पावर चाहिए होती है. या यूं भी कह सकते हैं कि ज़िंदगी इतनी मुश्किल मत बनाओ. सब आसान है.

फिर आता है जून और ब्रह्मापुत्र का किनारा. जहां कभी किसी एक तारीख़ को आपने मुहब्बत खड़ी देखी हो. साक्षात. या शायद नहीं देखी हो. पर मुहब्बत खड़ी थी वहीं, उसी तारीख़ को. सूरज लगभग उतना ही डूबा था. ब्रह्मापुत्र लगभग उतनी  ही फैली और शांत थी.


गुवाहाटी, ब्रह्मापुत्र किनारे

असम की उस तारीख़, उस किनारे पर बिना मिले बहुत कुछ मिलना तय हो गया था. मेरी बस ट्रेनिंग चल रही थी. दो कबूतरों के साथ. लगा कि ज़िंदगी उतनी मुश्किल नहीं, जितनी लिख लिखकर बना ली है. शायद अब यूं भी लिखना कम हो गया है. पहली बार दो लोगों को क़रीब से देखा. सिचुएशन कुछ हम दो हमारा एक टाइप थी. भोले.

जैसे बच्चे चॉकलेट लेने बाहर जाते हैं. मैं इन दोनों को छोड़कर असम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय में मोमोज़ लेने चला जाता था. मगर यहां तो नॉनवेज इतना ज़्यादा है कि मेरे भीतर का वेजिटेरियन वाला ग्रीन सिंबल खुद को संबल बंधाने लगा.

इस यात्रा पर एक लंबा ट्रैवलॉग लिखना था. मगर रह गया. इस बार नॉर्थ ईस्ट से लौटकर जैसे किसी ने मुझ पर भी कोई ज़िंदगी और प्यार का ट्रैवलॉग दर्ज कर दिया कि जिया ऐसे भी जा सकता है. प्रेमिकाओं से ज़्यादा ट्रैवलॉग्स से मुहब्बत निभाना आसान लगा. अच्छी राय को क़रीब रखने में देर नहीं करनी चाहिए.  लिहाजा प्वॉइंट टेकन.
माधुरी लेक, अरुणाचल प्रदेश.

बोरिंग बातें.  राजनीतिक नारों, सत्ता के  गलियारों, फिल्म, सोशल मीडिया. उल्टी आने की वजह अब बढ़ी हैं. डॉक्टर्स को ये बात अपडेट करनी चाहिए.

भारतीय. इं.डि.य.न.

इस बात का अहसास आपको पता है सबसे ज़्यादा कहां होता है? बॉर्डर पर.

भारत-चीन बॉर्डर, बूमला

जहां एक बारीक  लाइन के उस पार जो जगह है, वो कोई और देश है. सत्यमेव जयते.  मगर बांगड़ू इतनी ऊपर चीन बॉर्डर पर जाइंगा और सिर पर कोई कपड़ा नहीं रखेंगे तो ब्रेन हैम्रेज होलेगा. सांस फूलने लगेगी, भूख लगने लगेगी तो लोकतंत्र समझ आएगा.

जब सीना फुलाकर गांव में कोई मां ये कहती होगी कि बेटा देश की रक्षा कर रहा है सरहद पर. मगर वो तो मुझ जैसे बावलों को मैगी बनाकर खिला रहा है. ताकि भूख से और हवा की ऑक्सीजन की कमी से मैं मर न जाऊं.

समंदर तल से ऊपर और सरहद की तरफ बढ़ो तो स्विगी नहीं, इंडियन आर्मी का स्वैग चलता है.

30 रुपये में ऐसी मस्त चाय और मैगी देते हैं कि कांपती हड्डी खुश होकर 52 सेकेंड से कम वक़्त में नेशनल एंथम और सॉन्ग दोनों निपटा देती हैं. लेकिन फिर याद आते हैं दिल्ली के आसपास बैठी भारत माता की टेस्ट ट्यूब संतानें...जो सब कुछ खराब करे दे रही हैं.


डाउकी रिवर

खैर जाने दे. ऐसे लोगों की बातों से अच्छा है... एकला चलो रे. एकला से याद आया...बंगाली. बंगाली से  याद आया बांग्लादेश.

डाउकी रिवर. नाव में बैठो तो नदी पूरी अंदर तक साफ दिखती है. लगे कि मन भी इत्ता मेरा और सबका साफ होता तो ज़िंदगी में सुकून के लिए कहीं छुट्टियों पर बाहर नहीं जाना पड़ता. डाउकी सीधा बांग्लादेश जाती है.

बांग्लादेश के बॉर्डर पर एक जवान खड़ा था. बात हुई तो बताया कि बिहार का है. शायद दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहकर तैयारी भी की थी. अब वो बांग्लादेश से आते-जाते ट्रकों के बीच धूल में खड़ा रहता है. धूल देखकर मैंने भी उसे सेम हेयर कह दिया. दिल्ली रॉक्स विदाउट रॉक्स.

पर क्या कभी अपने राज्य की नंबर प्लेट का कोई ट्रक देखकर कुछ अलग लगता है. सोचा हुआ सवाल पूछा नहीं, लगा कि शायद ये करके ज़िंदगी आसान हो सकती है.

डाउकी नदी किनारा, बांग्लादेश बॉर्डर

बांग्लादेश और चीन को भारत में रहकर देखा तो लगा कि मैं भारतीय हूं. इससे पहले जलियांवाला बाग के अलावा कभी इतना इंडियन फील नहीं हुआ था.

लेकिन वक़्त की कैद में ज़िंदगी है मगर... चंद लंदन, स्कॉटलैंड हैं जो आज़ाद हैं.



यू पुअर इंडियन.. कांट यू अंडरस्टैंड डैट आइ एम आल्सो पुअर इंडियन. एंड नाऊ ट्रैवलिंग टू लंदन फोर द वेरी फर्स्ट टाइम.

मेरे भीतर कितनी इंग्लिश है. इसका एहसास तब हुआ जब लंदन एयरपोर्ट पर टैक्सी बुक करनी थी. अहा..ग्लूकोज़ की बोतल साथ रखनी चाहिए थी. एक भारतीय ज़्यादा इंग्लिश बोले तो जीभ चिपकने लगती है.

लंदन को लेकर मैं कभी एक्साइटेड नहीं रहा. मुझे हमेशा प्राग ने अपील किया. लंदन एवें ही रहा. फिर सितमगर सितंबर आया. अपन लंदन में आया.

लंदन

भगवान कसम, सरहद पर इंडिया जितना भी अच्छा लग रहा था. लंदन पहुंचकर इंडिया उतना ही कम अच्छा लगा. मेरी वजहें बाकियों से शायद अलग हों. लेकिन लंदन की हवा में आज़ादी लगी.

आप सड़क पर अपनी मुहब्बत को चूम सकते हैं. डांस कर सकते हैं. चुप बैठ सकते हैं. ये सब करते हुए आपको कोई देख नहीं रहा होता है. यहां तक कि कोई आपको ये भी ज़ाहिर नहीं होने देता है कि 'देख हम तुझे नहीं देख रहे हैं.'

मतलब यूं डोंट इवेन एक्जिसट.

लंदन की ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट
सड़कों पर लोग हॉर्न नहीं बजाते हैं. लगता है कि हॉर्न शब्द का इस्तेमाल लंदन में सिर्फ तब होता होगा जब हॉर्नी जैसा कुछ संयोग घटित हो रहा होता होगा.

लंदन पर कभी सुकून से लिखा जाएगा. फिलहाल लंदन से स्कॉटलैंड बढ़ते हैं. सीमा पार होने से इंग्लिश हिंदी नहीं हो जाएगी. इंग्लिश थोड़ा और एंग्लिश हो जाएगी. ग्लासगो लंदन का बिगड़ा रूप लगता है. यहां किसी चर्च में एक शादी देखी. बैकग्राउंड में बैंड वाले भैया पीपीरी बजा रहे थे. इंडिया होता तो या तो 'तारे गिन गिन मैं ता जागा राता नूं..रोक न पावा अंखिया विच गम दिया बरसाता नू.' बज रहा होता या 'दिन सगना ता चढ़िया  आओ री सखी मेरा सजना'

स्कॉटलैंड

लंदन में एक दोस्त भी बनी...या ये कहें कि जो भी दोस्ती थी वो कुछ पक्की हुई. एकदम अपने जैसी. लगा कि हैशटैग इंडिया लिखकर गाना गा दूं- बाकी सब सपने होते हैं, अपने तो अपने होते हैं.

अपनों से दिल्ली याद आती है. मेरा घर. जन्मभूमि. कर्मभूमि. मुहब्बतभूमि.

मगर ऊपर से लौटते हुए रातों में दिल्ली देखो तो ज़्यादा सच्ची लगती है. पूरी दिल्ली जलती हुई दिखती है. लगता है कि यही सच है, जलना कड़वा सच है.

ऊपर से दिल्ली

मगर फिर ये बात करता हूं कि लिखकर ज़िंदगी को मुश्किल नहीं बनाना है अब. आसान बने रहने देना है.

फिर किसी रोज़ किसी सुबह निकलेंगे.

एक बस्ता. एक हम. जूते पहने हुए. अतीत के सहमे हुए. कल में जाते हुए से, आज को मनाते हुए.

किसी बस, ट्रेन या हवाईजहाज़ से सुबह का उगता सूरज अकेले या किसी के साथ देखते हुए. भोले!

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