लॉकडाउन खुलने के बाद कुछ आवश्यकताएं हैं...


आवश्यकता है. 

दुनिया के सारे काबिल फोटोग्राफर्स की ताकि जब लॉकडाउन खुले, दुनिया खिले और लोग गले मिलें तो उन पलों की तस्वीरें उतारी जा सकें. इन फोटोग्राफर्स के पास ये हुनर हो कि वो उस जगह पर ऐसे मौजूद रहें, जैसे कोई पेड़ चुपचाप सालों से खड़ा हो. जैसे पार्किंग में खड़ी गाड़ी का शीशा धूल से महीनों से ढका हो, जिस पर I LOVE YOU उंगलियों से गुदा पड़ा हो. इन फोटोग्राफर्स का काम होगा कि मुस्कुराते हुए आंसुओं के गिरने और गले मिलने को तस्वीरों में ऐसे पकड़ें जैसे एक सख़्त बड़ी उंगली कोई नन्हा बच्चा पकड़ता और बताता है कि ज़िंदगी शुरू में कितनी मुलायम थी. ये तस्वीरें इसलिए चाहिए ताकि इंसान को पता रहे कि दूर रहने को दूर करना  कितना ज़रूरी होती है.

तस्वीर: सुमेर सिंह राठौड़

आवश्यकता है.

दुनिया के सारे सच्चे हिंदुओं की ताकि जब लॉकडाउन खुले और कोई टोपी लगाए सब्ज़ी वाला आकर चिल्लाए तो सीढ़िया उतरते लोग दौड़ पड़ें. भले ही ये कहें कि अरे मुल्ला जी, आलू सही सही लगा लो. फिर हँसते-हँसते बात यूं सेट हो कि अच्छा पंड्डी जी, धनिया फ्री में उठा लो. थोड़े उस वैराइटी के हिंदू भी चाहिए जो किसी मुसलमान के खांसते-खांसते थूकने पर डरे नहीं, बल्कि देखते ही दौड़कर जाएं और पीठ सहलाने लगें, जैसे मां सहलाती हैं. जो मुस्लिम नाम वाले डिलिवरी बॉय को सामान लेने के बाद जब लौटाएं तो ये कहें- बेटा फ्रिज का ठंडा पानी तो पी ले.

आवश्यकता है.

दुनिया के उन सारे इलाकों के मुसलमानों की जहां डॉक्टरों, पुलिसवालों पर पथराव हुए. ताकि जब लॉकडाउन खुले तो उन शूरवीर डॉक्टरों, पुलिसवालों और नर्सों से माफ़ी मांगी जा सके जो गए तो थे जान बचाने लेकिन बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर घायल लौटे थे. चाहिए होंगे कुछ वो मुसलमान भी जो तबलीगी ज़मात जैसे जुटानों में बरती गई लापरवाही के लिए ज़िम्मेदार थे. ताकि देश के किसी धर्म विशेष नहीं बल्कि उन सारे इंसानों से माफ़ी मांगी जा सके तो बेवजह तन या मन से संक्रमित हुए. टोपी लगाए या बिना किसी स्टोरियोटाइपिंग वाले मुसलमान चाहिए होंगे, जो जाकर नर्सों, डॉक्टरों, पुलिसवालों को खुदा का सबसे ज़रूरी काम करने के लिए शुक्रिया कह सकें. क्योंकि जब दहशत भरा माहौल खड़ा किया जा चुका था, तब भी ये लोग नफ़रत के ख़िलाफ़ प्रेम भरा इंसानी 'जेहाद' कर रहे थे. ये बात कुरान में शायद ना लिखी हो. लेकिन आसमान जब इतना साफ हुआ है कि सब साफ दिखने लगा. बिना पढ़े मुझे उस साफ आसमान में आसमानी किताब का ये सबक दिखने लगा.



आवश्यकता है.

दुनिया की सारी जनता की ताकि जब लॉकडाउन खुले और सरकारें चुनावी रैलियों की तरफ बढ़ें. बसों, ट्रेनों को बुक करके भीड़ जुटाई जा रही हो. तब आवाम खड़ी होकर पूछ सके कि बस के काग़ज़ दिखाओ, इनकी फिटनेस बतलाओ. जो कह सके कि ''जनरल बोगी में नहीं जाएँगे नेताजी, वैसे वाले एसी कोच में जाएंगे जिसका किराया शहर से गांव लौटते वक्त भरना मुश्किल था.'' जनता वो भी चाहिए जो तब घंटों भारी झोले लिए लाइनों में खड़ी रही, जब ख़बरों में दो राजनीतिक पार्टियां आपस में अड़ी रहीं. जनता वो वाली भी लगेगी, जो अब चुनावों में जाति, धर्म, झूठे वादों पर भरोसा ना करे और पलायन की तस्वीरों के सच को याद करे. जनता जो 'हमारा नेता कैसा हो?' सवाल के जवाब को कार्यकर्ताओं की चीख से नहीं, पेट की भूख से भरे.


आवश्यकता है.

दुनिया के सारे थाली बजाने, फूल बरसाने और दीया जलाने वालों की ताकि जब लॉकडाउन खुले तो उन पलायन की प्रेग्नेंट औरतों, कंधे पर पत्नी बैठाए मर्दों, साइकिल चलाकर घायल पिता को घर पहुंचाने वाली बच्चियों, बेटे की मौत पर फोन पर रोने वाले रामपुकार यादवों को पुकारा जा सके. थाली बजाकर भीड़ जुटाकर ये बताया जा सके कि वो लोग कितने बहादुर थे. जब घरों से निकलना मना था, तब ये सालों पहले घरों से निकले लोग घरों को निकल पड़े थे. कहते कि कोरोना और भूख से मरने से अच्छा है अपने घर में मरें. ना कोई शिकायत, ना कोई ताना. लोग चाहिए ताकि फूल बरसाकर, दीया जलाकर ये बताया जा सके कि राम के अयोध्या लौटने और उनके घर लौटने में ख़ास फ़र्क़ नहीं था. दोनों लंबी मुश्किल यात्रा करके घर लौटे थे. शहरी जंगलों से गुज़रते हुए, चुनौतीपूर्ण रावणों को हराते हुए.


आवश्यकता है.

दुनिया के सारे स्टैचू कहने वालों की ताकि जब लॉकडाउन खुले तो नीले आसमान, साफ़ नदियों, आसमां के उड़ते परिंदों, चहचहाती चिड़ियों को स्टैचू कहा जा सके. ताकि प्रदूषण बढ़ने पर कुदरत की खूबसूरती बची रह सके. मगर ये स्टैचू ऐसे कहा जाए कि सब बोझिल ना होए. ये वादा रहे कि मैं ग्लोबल वॉर्मिंग पर लंबा लेक्चर तो नहीं दूंगा लेकिन गंगाजी में खुद प्लास्टिक नहीं फेकूंगा. खुद के इंडिविजुएल वादे रहे और ये मुरादें रहें कि अब सब बचा लेना है ताकि दिल्ली मेट्रो की खिड़कियों से जब झांकें तो लोहे वाले पुल के साथ साफ नदी दिखे. प्री वेडिंग फ़ोटो शूट करवाते जोड़े वाले किनारों से भरी हुई यमुना. उन तस्वीरों को सुंदर बनाने के लिए कुछ परिंदे बैकग्राउंड में चाहिए तो स्टैचू खोल देंगे. इतनी बड़ी क्या? पेंसिल. परिंदों स्टैचू कैंसिल.


आवश्यकता है.

दुनिया के सारे बुलंद आवाज़ लगाने वालों की जिनकी आवाज़ सैकड़ों किलोमीटर दूर तक जाती है.  ताकि जब लॉकडाउन खुले तो यहीं दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर जैसे शहरों से हाईवे जाती सड़कों की ओर मुंह करके चीखकर पुकारा जा सके....

ओ भइया....लौट आओ. माफ कर दो. तुम्हें तब रोक ना पाए ना तुम्हें बैठाकर भेज पाए. ओ भइया लौट आओ.. आवश्यकता है.

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