नाइंसाफ़ी और सबके अपने-अपने सच...

 

नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आप कब बोलते हैं, ये बहुत मायने रखता है. 

तब जब आप अपने साथ हो रहे ग़लत सुलूक के ख़िलाफ़ उठते हैं या तब जब आप किसी गैर के साथ हो रहे ग़लत को दर्ज करते हैं. पूरी तरह तो नहीं, पर मैक्सिमम कोशिश की है कि किसी दूसरे के साथ हो रहे ग़लत के ख़िलाफ़ उपस्थिति दर्ज हो सके. इस बात की बिलकुल परवाह ना करते हुए कि मेरे साथ तो सब ठीक ही हो रहा है. 

खुद ग़लत भोग चुके इंसानों को ख़ुद वही हरकतें करते हुए देखना बहुत मज़ेदार होता है. कहने वाली बातें होती हैं कि सच बोलने वाले लोग चाहिए. कई ऐसे अनुभव हैं कि जब खुद की लाइफ सही चल रही थी लेकिन किसी दूसरे के लिए जाकर सही जगहों पर जो सच लगा, वो दर्ज किया. वही दूसरे सब ठीक होने पर दूसरों के साथ हो रहे ग़लत को दर्ज करना तो छोड़िए, ख़ुद उसी में शरीक हो जाते हैं. ये सब देखना भी अनुभव से भरा रहता है. ज़ाहिर है कि सबके अपने-अपने सच होते हैं.



पर आप तैयार नहीं होते हैं वैसे तर्कों को सुनने के लिए, जिनमें कहा जाता है- मोदी जी ने किया है तो कुछ सोचकर ही किया होगा.

अपने एक प्यारे दोस्त से उसके धृतराष्ट्रियापे के लिए अक्सर लड़ता हूं. फिर पाता हूं कि वो बहुत सही करता है. वरना अनुभव कुछ ऐसे होंगे कि जिन राम ने रावण वध के बाद विभीषण को लंका सौंपी, वही विभीषण Omni वैन खरीदकर औरतों की किडनैपिंग शुरू कर दे और अशोक वाटिका को अपना गैराज बना ले.

ऐसा भी ना समझा जाए कि हर बार लड़ाई लड़ी ही है या खुद कुछ ग़लत नहीं किया या ग़लत को ग़लत हर बार बोला ही है. पर मैक्सिमम मौक़ों पर बोला है. क्योंकि ऐसा करके जो अंदर से जो किक मिलती है न, वो सुख होती है. अमिताभ बच्चन कभी नहीं समझ पाएंगे कि अनुराग कश्यप या प्रकाश राज कितने सैटिसफाई रहते होंगे.

पर अब कभी कभार अमिताभ बनने का जी करता है. चुप रहो और सब देखते रहो. जो अच्छा है वो भी दर्ज करते चलो और बात भले हो या ना हो, पीठ पीछे तारीफ़ करो. लेकिन जो इतना बुरा है कि भुलाया ना जा सके वो भी दर्ज होता चले.

क्योंकि सच चाहे सबके अलग-अलग हों. लेकिन नाइंसाफ़ी की एक ही परिभाषा होती है. आपके साथ हुई नाइंसाफ़ी किसी और के साथ होने पर इंसाफ का तराजू नहीं बन जाएगी. 

और हां. डोंट फोरगेट... कर्मा इज ए बिच.


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