जेब में घुसा खरगोश

ग्यारहवीं में ताजा ताजा दाखिला हुआ था। दोस्त लोग दसवी में पास होने की खुशी में नया मोबाइल क्लास में चमका रहे थे। हमारा भी मन करा। मम्मी से कहा-पापा से कहो, फोन दिलवाएं। सब लेकर आते हैं। संदेश पापा तक पहुंचा और उनका थप्पड़ बिना किसी खेद और रुकावट के हमारे गालों तक। बोर्ड के पेपर हैं अगले साल, मोबाइल चलाएगा। पढ़ ले आर गुप्ता को। बात वहीं से खत्म और अब सारा ध्यान 12 वीं अच्छे नंबरों से पास करने पर टिक गया। पर ध्यान सबसे कम ध्यान में रखने वाली चीज है। बारहवीं तो पास कर ली। पर नंबर ऐसे ना थे कि पापा के सामने दोबारा अपनी इच्छा और गाल पेश करूं।
ग्रेजुएशन के 3 साल में कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई एक अच्छे फोन की। घर में नोकिया 1600 एंड बदर्स पड़ा हुआ था। उस दौर में मैसेज से बात करने वाली गर्लफ्रेंड बन गई थी।और नोकिया के फोन बिना देखे फटाफट मैसेज टाइप करने में सांय सांय थे।मैसेज चलते रहे। कभी कैमरे वाले ढंग के फोन की ललक ही नहीं हुई।
ग्रेजुएशन खत्म करने के बाद दिमाग में आया कि आईआईएमसी में एडमिशन होते ही फोन खरीद लूंगा। महंगा वाला। एडमिशन हुआ तो लगा यार फीस में इत्ते पैसे लग गए हैं। अभी छोड़ता हूं,जब प्लेसमेंट हो जाएगा, तब फोन खरीद लूंगा। नौकरी लग गई तो लगा पहली सैलेरी में सब को कुछ न कुछ दिलवा दूं,फोन बाद में खरीद लूंगा। धीरे धीरे पैसे जोड़ ही रहा था कि लखनऊ में एक्सीडेंट हो गया। हाथ में नीले रंग का प्लास्टर बंधा जिसकी बाजार कीमत करीब 8000 बैठी ( मौसमी का जूस मिलाकर)। फोन की नींव हिल गई।महीने बीतते रहे, पर फोन नहीं आया। कहीं कभी जाना होता तो भैया का मांग के ले जाता था।घर में सब कहने लगे थे कि अब इस बार अपने लिए फोन ले ले। पर कंजूसी में डिग्री कोर्स कर चुके मन ने कभी इसकी इजाजत ही नहीं दी। पर घरवाले तो घरवाले होते हैं।कल रात घर पहुंचा तो कमरे में फोन मिला। मेरा पहला पन्नी चढ़ा नया फोन। बड़ा सा है,सिम कटवाने के 50 रुपये ठुक गए। जेब में जेमेट्री की तरह पड़ा रहता है।खरगोश जैसा सफेद, मुलायम और तेज।
नोट-पार्टी ना मांगे अभी चमङे वाला कवर और स्क्रीन गार्ड डलवाना है।

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