बुक रिव्यू: ग्लोबल गांव में देवताओं से नहीं, असुरों से लगेगा डर


आज हर कोई विश्व को गांव बनाने की बात कर रहा है. एक ग्लोबल गांव. लेकिन दुनिया को गांव बनाने की दौड़ में जो असल गांव हैं, हम उनको गांव बनाए रखने में नाकाम साबित हो रहे हैं. गांव विलुप्त होते जा रहे हैं और हम विश्व को ग्लोबल गांव में बदलने की बात करते हैं.

आशियाना बनाने की खुशी और उसके टूटने का डर दोनों अगर चरम पर हों, तो जज्बात सबसे ज्यादा उफान पर होते हैं. विकास की अंधी दौड़ में सबने अपने-अपने पैमाने तय किए हैं. किसी बड़ी कंपनी या सरकार के लिए फैक्ट्रियां और पक्की इमारत बनाना विकास है, लेकिन किसी के लिए यह विनाश का मंजर है. इंसान अपना छोटा घर बनाता है, उसमें जिंदगी के दो पल खुशियों के साथ बिताता है. लेकिन कई बार कुछ लोगों को दूसरे की खुशी की कीमत अपनी खुशियों की कुर्बानी देकर चुकानी पड़ती है.







रणेन्द्र की किताब ग्लोबल गांव के देवता

मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, पश्चिम बंगाल और देश के बाकी राज्यों में रहने वाले आदिवासियों की खुशी ट्विटर पर फॉलोवर या फेसबुक पर डाली जाने वाली सेल्फी पर निर्भर नहीं करती. उनकी खुशी आदिवासी इलाकों में उनकी बसाई दुनिया में उनकी शर्तों पर या बुनियादी जरूरतों को पूरा कर देने भर से पूरी हो जाती है. ग्लोबल गांव के देवता किताब के जरिए लेखक रणेन्द्र ने एक बेहद जरूरी और हाशिए पर खड़े लोगों की बात रखने का सराहनीय कदम उठाया है.

स्कूल टीचर की नौकरी पा चुके एक मां के घुन्ना की पोस्टिंग शहर से दूर पहाड़ के ऊपर जंगल-खादानों के बीच भौंरापाट में होती है. भौंरापाट एक ऐसा इलाका जहां बॉक्साइट की माइनिंग सालों से लगातार हो रही है. विकास के नाम पर कुर्बानी सिर्फ गरीब तबके को ही देनी पड़ती है. इसके बदले उसे मिलती है खुद की ही ढोने वाली जिंदगी. स्वभाविक है कि शुरुआत में नवनियुक्त टीचर को आदिवासी इलाका बोरिंग लगा, लेकिन वहां के हालात को किताब के मुख्य सूत्रधार के जरिए पाठकों को समझाने का काम लेखक ने बखूबी किया है.

असुर: आदिवासियों की एक जाति असुर के बारे में रणेन्द्र ने किताब में आम लोगों की धारणा को सामने रखा है. रणेन्द्र किताब में लिखते हैं, ‘असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लंबे-चौड़े, काले-कलूटे, भयानक, दांत-वांत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग निकले हुए लोग होंगे.’ लेकिन किताब के किरदार ‘लालचन को जानकर सब उलट-पुलट हो रहा था. बचपन की सारी कहानियां उलट रही थीं.’

3 सितंबर 2014 को आजतक पर छपा

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