कहानी: भूकंप की कचोटती धूल और दो प्रेमी...

ऑफिस में सुबह घुसते वक्त जैसे ही उदिता ने कार्ड पंच किया, उसके नाखूनों की फिरोजी नेल पॉलिश पर कार्तिक की नजर पड़ी. अपनी-अपनी सीटों पर जाते हुए कार्तिक ने इशारों में नेल पॉलिश और उदिता के सुंदर लगने की तारीफ कर दी. उदिता की आंखें और होंठ एक साथ हरकत में आकर नाक के पास गले मिल लिए.

दोनों अक्सर अपने डेस्कटॉप से नजर उठाते तो एक-दूसरे के मुस्कुराने का एहसास आंखों को देखकर ही हो जाता था. कमजोर खंबों पर खड़ी कांच की पुरानी दफ्तरिया इमारत के एक तरफ से शीशे गुनगुने हो गए. दोनों साथ लंच करने बाहर आ गए. उबलती चाय और खाने परोसने की खुशबू के बीच दफ्तर से लोग तेजी से बाहर आती हुई भीड़ खुले में आकर सिमटने लगी. भूकंप आने का शोर हुआ.

कार्तिक और उदिता ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया. उनकी निगाहें एक दूसरे को देखे बिना बाहर आते लोगों की आंखों से अपने हिस्से का डर छानने लगीं. एक हाथ से दोनों ने अपने-अपने घर फोन लगाया. उदिता को घर से खुली जगह में चले जाने की हिदायत मिली. बच्चा बच्चा ही रहता है. कार्तिक के परिवार में जब किसी ने फोन नहीं उठाया तो उदिता का हाथ छोड़ उसने माथे पर चमकती पसीने की बूंदों को पोंछना शुरू किया. घर पर किसी के फोन न उठाने की बेचैनी ने अब उन दोनों के माथे पर कब्जा कर लिया.

''उदिता, तुम यहीं रुको मैं घर जा रहा हूं, मुझे डर लग रहा है. ध्यान से रहना. शाम की मीटिंग के लिए प्रेंजेंटेशन तैयार कर लेना, मैं लेट हो जाऊंगा.''
''कार्तिक, तुम मेरी परवाह मत करो. मैं काम निपटा दूंगी. बस तुम घर जाओ और जल्दी लौटकर आओ. देख लेना सब ठीक होगा. परेशान मत हो. लौटकर आओगे तो हम साथ चलेंगे, हाथों में हाथ डालकर.''



उदिता की बात सुनकर कार्तिक एक दिखावटी मुस्कान लिए घर की तरफ बढ़ लेता है. रास्ते भर उदिता कार्तिक से फोन पर बात कर उसे दिलासा देती रहती है. 'हम्म, ठीक है. काम जरूर कर देना. मैं जल्दी आता हूं' जैसी बातों के अलावा कार्तिक उदिता से कुछ नहीं कह पाता है.

घर पहुंचकर परिवार को घर के पास बने पार्क में देखकर सुकून का शरबत पीकर कार्तिक मां से फोन न उठाने की वजह मालूम करता है. पता चलता है कि भूकंप आते ही बाहर आते वक्त फोन घर में छूट जाता है. तभी पार्क में खड़े सभी लोगों को एक जोरदार झटका फिर महसूस होता है. पार्क के सामने के कुछ मजबूत घर चरचराने से लगते हैं. कांपती धरती शांत हो जाती है. कुछ घंटे रुकने के बाद शाम होने से ठीक पहले कार्तिक दफ्तर की तरफ लौटता है.

दफ्तर के बाहर भागती भीड़ और उड़ती धूल को समझने से कार्तिक इंकार कर देता है.  करीब जाने पर भीड़ में खड़े लोगों के साइज बढ़ने और धूल के आंखों में कचोटने पर कार्तिक समझ पाता है कि भूकंप के दूसरे झटके में दफ्तर की इमारत गिर गई है. मलबे में लोग धंसे हुए हैं. उदिता को बाहर ढूंढ़ती निगाहों के थकने के बाद हिम्मत कर कार्तिक मलबे की तरफ जैसे ही बढ़ता है, उसे मिट्टी से मैला हो चुका एक हाथ गंदे फिरोजी रंग के नाखूनों के साथ दिखता है. मलबा और कार्तिक दोनों चुपचाप उसी जगह घंटों पत्थर बने पड़े रहते हैं.





टिप्पणियाँ

  1. एक ही नजर में मैंने पूरा पढ़ लिया, कहानी का प्लॉट अच्छा है।

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    1. शुक्रिया स्नेहा. वक्त देने के लिए. पढ़ने के लिए. :-)

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