'जो प्रतिबद्ध है, वही लथपथ है'



अपनी कोशिशों की फटी चादर में उलझा रहता. कहीं भी जाता तो मन नहीं लगता. कहीं रुकता तो कहीं जाने का मन करता. कहीं जाता तो आने का मन करता. शायद बस आते जाते रहना चाहता था. रुकना हो नहीं पा रहा था. 'नौकर की कमीज' हो गया था. जामा पहनने से डरने लगा था. कोई करीब आता तो बहुत खुश हो जाता. प्रकाश वर्ष स्पीड से सपने देख लेता. इमेजिनेशन काई की तरफ उसकी आंखों के कोने और पलकों से जुड़ चिटचिटाने लगतीं.

फिर अचानक एक खौफ घुसपैठ कर लेता. मोह का खौफ. ये मोह अनचाहे गर्भ की तरह उसमें पनपने लगा. जिसकी शुरुआत और प्रक्रिया तो खुशी बहुत देती, पर चूंकि अंजाम के लिए हम तैयार नहीं होते हैं तो मन घबराने लगता है. वो भी अनचाहे गर्भ की तरह अपने अनचाहे मोह का गला घोंटना चाहता. वजह वो खुद को ही मानता. माइक्रो सैंकेड्स में हुई छोटी से छोटी बात वो सालों तक याद रखता. ये फायदा पहुंचाने से परे वाली याददाश्त को किसी ब्रेन हैम्रेज के बाद वो खो देना चाहता था.


पलक झपकते ही खुश हो जाता. छोटी छोटी बातें मायने रखती. सिनेमा हॉल में रो जाता था. दिक्कत खुश होने में नहीं थी. उलझन छोटी छोटी बातों के बुरे लगने पर शुरू हो चुकी थीं. चंदर भी ये सच जानता था. यकीनन बात छोटी ही होती थी. हर बार. पर वो बुरा मान जाता अक्सर. छोटी छोटी बातों के अच्छे या बुरे लगने में सांमजस्य नहीं बैठा पाता था. कोशिश करता तो खुद में सबकी शक्ल देखने लगता. इन शक्लों से उभरी मुंडियों की सांस वो काली पुतलियों की रखवाली में लगी लाल सकरी रस्सियों से रोक देना चाहता. वो खुद को ही बुरा मानने लगता.

जब कोई करीब आता तो शक करने लगता. इस सच को जानते हुए कि मेरे से कोई क्या ही फायदा उठाएगा. ईमानदारी और सोच पाने के अलावा कुछ भी तो नहीं था मेरे पास. कोई क्या ही ले जाएगा.

वो शायद अपने आप से डरने लगा था. सवाल करने लगता, 'क्यों मैं किसी के 4 सेंकेंड रुकने, नजर मिलाकर मुस्कुराने, मामूली तबीयत खराब होने पर चिंता करने वाले, चेहरा उतरा देखके 'प्लीज परेशान न हो' कहने वालों को देखके खुश हो जाता हूं. ये छोटी ही तो बात होती होंगी न सबके लिए? मैं क्यों इन बातों को सीधा मोह-प्यार से जोड़कर देखने लगता हूं. फिर, मैं परवाह करने लगता हूं. अपना लिखा दोबारा पढ़ने से डरता हूं. कभी गलती से पढ़ लेता हूं तो जी घिना जाता है. तब लिखा मिटा देता हूं या घिनहे थूक की तरह गटक लेता हूं. लिखना बेहतर इसलिए लगता है क्योंकि खुद को ज्यादा सच्चा पाता हूं. हम झूठ आसानी से नहीं लिख सकते. खुद का लिखा झूठ देखना कितना मुश्किल रहता होगा न. देखकर खुद से घिन होती होगी न. जबकि बोलता झूठ हमें दिखता ही कहां है. सुनाई भी तो नहीं पड़ता. क्योंकि मकसद सुनाते हुए बात को सामने वाले पर जमाना रहता है. सच हमें ही पता होता है. पर ये हमें पता सच भी तो स्वार्थी होता है न. हमारे लिए लालची.'


चंदर हर काम घुसके पूरी जान, मन लगाकर, खुद को गूथकर करता. इश्क, परिवार और दोस्तों से करीबी लेकर रिक्शा वाले को तय पैसे से ज्यादा देने या सड़क पार करते हुए अपनों को पीछे कर आती गाड़ियों की तरफ आगे आने तक, की कशमकश तक! बावजूद इसके खुद ही को सवाल से घेरने लगता.  'सामने वाले को दिखावा, स्वार्थ या एहसान लग रहा होगा'. वो इससे सबसे ज्यादा डरने लगता. चंदर खुद को अभिनय करने के शक से देखने लगता. फिर अभिनय में खुद को माहिर समझने की खुशफहमी में खुद से नफरत करने लगता. लोगों को करीब आने से रोकना चाहता. उम्मीदें टूटने का बदला, किसी और से न ले लूं. बेवजह एक डर पाल लिया था. खोने का डर. मेट्रो अनाउसमेंट उसे जिंदगी का सच लगने लगा. 'सटकर न खड़े हों, प्लीज माइंड द गैप.'

'जो प्रतिबद्ध है, वही लथपथ है.' न्यूज चैनल में सुनी लाइन सच लगने लगती है.








टिप्पणियाँ

  1. ईमानदार...खुद को भरसक ईमानदार बनाए रखने कि कोशिश में जुटा कोई भी व्यक्ति इसे महसूस कर सकता है..

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  2. Dil tak pahuchti panktiya... lgta hai jaise apne hi vicharo ko padh rhi hu

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  3. खुद का लिखा झूठ देखना कितना मुश्किल रहता होगा न. देखकर खुद से घिन होती होगी न. क्या लिक्खे हो. एक चुम्मी ले जाओ आकर!

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