चिल्लड़ को तरसता नायक हीन भारत

'जो मुसलमान औरतें घर से नहीं निकलती थीं. मोदी ने उन्हें सड़क पर ला दिया.'

बैंक की लाइन में खड़ी औरत की ये बात चाहकर भी उस दर्द के साथ यहां नहीं लिखी जा सकती, जो उसके चीखते गले मगर उदास आवाज़ से झलक रहा था.

देश 'कतारयुक्त' है.

आदमी से चिपका आदमी और औरत से चिपकी औरत खाली जेब लिए कतार में हैं. 'आप कतार में हैं' लाइन सुनकर कस्टमरकेयर को हड़का देने वाला देश चुप है. कोई उम्मीद दूर तक नज़र नहीं आती. आर्थिक मामलों का जानकार होता, जब भी ये बता न पाता कि परेशानी के अनुपात में विमुद्रीकरण का ये कदम अधिकांश भारतीयों के लिए कितना लाभकारी होगा.

फिलहाल बिना लाइन में लगे ये जैसा देश दिख रहा है:

वो बंद नोटों को चिल्लड़ बनाने में लीन है,      
चिल्लड़ को तरसता भारत नायक हीन है.


यहां दो बातें स्पष्ट कर देने की ख्वाहिश है. पहली ये कि मुल्क अब आज़ाद है. दूजा ये कि इमरजेंसी नहीं लगी है.

वो बात अलग है कि अब तक कई लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. मरने वालों का स्विस बैंक में खाता नहीं है. जीडीपी में उनका कितना योगदान था, पोस्टमार्टम रिपोर्ट देखते हुए परिवार को ये ख्याल नहीं आया होगा!

ये सब लिखते हुए अचानक गोवा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोना और तंजयुक्त भाषण याद आ रहा है.

मोदी ने हंसते और ताली बजाते हुए कहा था, "लोगों के घर में शादी है. मगर पैसे ही नहीं हैं"

कारखानों में पांच हजार रुपये की नौकरी करने वाला दो दिन छुट्टी करके लाइन में लगेगा. तो क्या कमाएगा, क्या खाएगा और कितना 'काला धन' बैंक में जमा कराएगा?

हंसते हुए नेताओं के बीच एक कसक जो उठती है, वो एक नायक के न होने की है. भारत एक आंदोलनों का देश है. सरकार के फैसले के खिलाफ देश को किसी आंदोलन की जरूरत नहीं है. पर जब हवा में प्रदूषण की वजह से कान में मैल जमने लगे और आवाज़ भीतर न जाए तो एक नायक की जरूरत होती है.

नायक, जिनकी किल्लत इस मुल्क में कभी नहीं रही. आंदोलनों के नायक 'गांधी' अब आम लोगों से दूर हैं. बापू बैंक में कैद हैं. सड़क पर लाइन में लगे लोगों को बापू से अपॉइंटमेंट नहीं मिल रही है.

हाल के दिनों में भारत को कुछ नायक मिले थे. पर क्रमश: दाएं से बाएं और पूर्व से उत्तर वो सब उत्तरहीन हो गए. कुछ सत्ता में लीन हो गए.

रामलीला मैदान में कुछ ऐसे ही नायक आए. मगर जल्दी भूतपूर्व नायक हो गए. अन्ना हज़ारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, इरोम शर्मिला कुछ ऐसे ही नाम हैं. पर अब ये नाम टीवी चैनलों पर निजी राजनीतिक, आर्थिक वजहों से अक्सर पाए जाते हैं. फिर चाहे उत्पाद बेचते रामदेव हों. या चुटकुला शो में अपनी फिल्म बेचते अन्ना हज़ारे.
क्रेडिट: सुमेर सिंह राठौड़


केजरीवाल और राहुल गांधी दो ऐसे लोग हैं, जिनसे लोगों को कुछ उम्मीदें थीं. पर दोनों ही सज्जन केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली में कहीं खो गए. उनका 'नायकत्व' प्रखर होकर सामने नहीं आया.

नायक इसलिए नहीं चाहिए कि एक विद्रोह करना है. बल्कि इसलिए चाहिए कि ये जो भीड़ सड़कों पर है. आठ दिन बाद बेटी की शादी है और विधवा मां कार्ड लिए लाइन में खड़ी है. या वो बूढ़ी औरत जो एम्स के बाहर बेटे का इलाज कराने की बजाय भूखी बैठी रही. उसकी आवाज़ सरकार तक पहुंचे. क्योंकि अब तक सरकार की तरफ से जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, वो 'थोड़ी तकलीफ तो होगी ही' से सनी हुई है.

लेकिन जैसे गागर, गागर से सागर भरता है. ठीक वैसे ही ये थोड़ी, थोड़ी तकलीफ बहुत सारे टैक्स स्लैब से दूर करोड़ों लोगों की बहुत, बहुत तकलीफ हो जाती है.

इंडिया में बसा भारत तकलीफ में है. पर वो कुछ बोल नहीं रहा. वो जंतर-मंतर भी नहीं जा रहा है, इस डर से कि कहीं इस बीच बैंक में उसका नंबर न आ जाए.

शायद ये सही भी है. क्योंकि देश की जनता ने चौकीदार चुना था. चौकीदार जो बैंक के बाहर बैठा है और लाइन में लगे लोगों को ऐसा नंबर दे रहा है, जिस नंबर का नंबर नहीं आ रहा है.

चौकीदार गेट पर बैठा भीड़ को अंदर जाने नहीं दे रहा है. भीड़ जो कि आप और हम हैं. भीड़ जो कि चिल्लड़ को तरस रही है, वो नायक हीन है. या  शायद उसका बनाया नायक अब सत्ता में लीन है!

टिप्पणियाँ

  1. आम जनता का दर्द और वर्तमान भारत की राजनैतिक सच्चाई का बढिया विश्लेषण...

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  2. आपकी लिखे इस आर्टिकल में सच्चाई काली मिर्च की तरह कूट कूट कर भरी हुई है! यहाँ से मुझे कुछ लिखने का इशारा मिला है!

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