ज़िंदा कौमें 14 फरवरी का इंतज़ार नहीं करती

ज़िंदा कौमें 14 फरवरी का इंतज़ार नहीं करती. फिर भी ग़र कोई एक दिन है तो रहने दो.


हिसाब मांगने का काम रातें रोज़ की तरह कर ही लेंगी. माइग्रेटरी सा जो दिल है, धड़कता भड़कता एक दिन लौट ही जाएगा. इससे पहले कि लुप्प से बंद होकर ये लौट पड़े, इसे बसा दो...कि कोई मुहब्बत का कैंप लगा दो. जहां ये तय रहे कि सुकून की सप्लाई रुक न पाए.


मुआयना करने जो आईं अंजान नज़रें, शर्म की पाॅकेट काटके जीभ चिढ़ाकर भगा देंगे. रातों को कैंप से दिखा जो कल परसों जितना बड़ा चांद, अंगोछा डुबाकर थोड़ा सा चांद निचोड़ लाएंगे. ताकि जब अंधेरा होए तो लैंप जलाने के चक्कर में मिट्टी तेल से हाथ की खुशबू न मिटे.



अंधेरा बिना खूशबुएं के और काला लगता है. तब चांद का निचोड़ा अंगोछा झटक देंगे... हाथों की खुशबू छितरी चांदनी में न जाने कैसी लगती होगी. सबसे गहरे रिश्तों में काटी छोटी चुकोटी सालों तक याद रहती है, तब जबकि चुकोटी से पड़ा गुलाबी निशान वाया गाल और आंखें कब का उड़ चुका होता है.

उसी कैंप में सब रखेंगे थोड़ा सा ज़्यादा या थोड़ा सा कम. नहीं रखेंगे कुछ भी ऐसा कि जिससे कुछ लिखा जा सके. तो क्या हुआ कि अब भी लिखा हुआ ज़्यादा सच लगता है, क्योंकि झूठ बोलने की गुंजाइश कम रहती है. पर दिल तो माइग्रेटरी होता है न, कमबख्त जल्दी बस नहीं पाता है. कि आओ उस डर को खत्म ही कर दें ताकि लिखे से कोई धोखे न रहे.


सबूत कई हैं
गवाह हर बार सिर्फ एक रहा
'सिर्फ एक रहा'
लिख देना जितना आसान है
'रहना' उतना ही मुश्किल
फिर भी लिख दिया है
तो क्या हुआ कि लिखना कभी सपना था ही नहीं!

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