चीख बंद हुई, पूल टूट गया

शशि बहुत ज़ोर से चीखती थी। पेट में दर्द रहता तो वो ऐसे उछलती कि पुल सा बन जाती थी। मैं भागकर घर के सामने शशि के यहां जब तक पहुंचता, वो बेहोश हो चुकी होती थी। खांसी की सीरप की पुरानी बोतल निकाली जाती और उसमें रखे 'जल' को छिड़ककर शशि की मम्मी कहतीं, 'धन धन सतगुरु, तेरा ही आसरा.'

शशि देर सवेर होश में आ जाती। दीवारों पर गुरमीत राम रहीम की तस्वीरों के पैर छुए जाने लगते। शशि का परिवार मथुरा से था लेकिन बीते सालों में ठाकुरजी के लिए सच्ची भक्ति 'पिताजी' की तरफ कंवर्ट हो रही थी। उनके घर पर जो पिताजी थे, उनको पापा या बाबा कहा जाने लगा। शशि के पापा दर्जी थे। कतरनों से शर्ट सिल देते थे। अब वो राम रहीम की कतरनों से अंधविश्वास सिलने लगे थे। घर में भगवान की तस्वीरों की जगह 'पिताजी' ने ले ली।



मां को भी न जाने क्या हुआ कि वो भी एक दिन सिरसा जाकर 'पिताजी' से नाम और उनकी तस्वीर ले आईं। उसी रात मुझे इत्तेफाक से इतनी तेज बुखार हुआ कि 13 दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिली। लौटा तो गांव से मेरे बाबा देखने आए। दीवार पर टंगे गुरमीत राम रहीम की तस्वीर और उसके आने की टाइमिंग देख-जानकर बोले- 'यहिके दहिजार के चौदा के फोटू हटाओ वरना हम हुमक के मारब तो सारी भक्ति चरही मा घुस जाई.' बाबा की इस लाइन से राम रहीम से हमारे घर का 13 दिनों का साथ छूटा।

इसका फायदा पर्सनली मेरे लिए ये रहा कि मुझे कभी इन बाबाओं, राशिफल, कुंडली मिलान से नफरत हो गई। भगवान पर अब भी पूरा यकीन है, भोले! लेकिन वो विश्वास यूं है कि अब भगवान पर चुटकुले भी बनाता हूं, सुनता हूं। दूसरा बमुश्किल मंदिर जाता हूं। मन नहीं करता तो पूजा नहीं करता हूं कई दिनों तक, जैसे कि मन न होने पर घंटा मैं कभी न लिखूं।

विश्वास और अंधविश्वास का बेसिक डिफरेंस पता चल गया उस दिन, आगे के अनुभव डिफरेंस की लकीर को पुख्ता करते गए।

शशि का पूरा परिवार अब भी सिरसा जाता है। टट्टी से लेकर रसोई तक में फ्री में काम करता है। वजह बाबाजी का आशीर्वाद पगले! पूरे घर के गले में राम रहीम का लाॅकेट लटक रहा है और उनका यकीन ठाकुरजी की मूर्ति की तरह निकलकर शोकेस में बंद हो चुका है। शोकेस के शीशे काले हैं और वो सब इंसान अब 'इंसा' हैं।

शशि के बाप के जब असली पिताजी मरे तो वो बोले- अब तो पिताजी का ही सहारा है। उनको कभी नहीं मालूम चला कि वो बुड्ढा इस बात से अक्सर कितना दुखी रहता था कि उसने अपने भीतर और बेटों का पिताजी खो दिया।

शशि को तब ही वाले दिनों में राम रहीम के ही एक भक्त से प्यार हुआ। दोनों ने शादी करनी चाही लेकिन 'इंसा' की 'समाजियत' जाग गई। 'गुरुजी की नज़र में सब एक है' कहने वाले शशि के गाल पर निशान जनरेट करने लगे। मैं शशि से उमर में काफी छोटा था लेकिन प्यार शायद छोटे से समझने लगा था या शायद मुझे इस फील्ड का बाबा बनना था।


मैंने अपना घर खाली पाकर शशि और उसके प्रेमी की खूब मुलाकातें करवाईं अपने सीलमपुर वाले कमरे में। कमरे में टंगे मेरे हनुमान दोनों के बाहर निकलने पर मुस्कुराते रहते थे। वो उस बीच इतना मिले कि इक रोज़ शशि पेट से हो गई। उन दोनों की भले ही फट रही हो पर मुझे बहुत सही लगा। दिल्ली में सामान्य ज्ञान की दस रुपये वाली किताब कहती है कि चुकंदर की पत्ती घिसकर सुंघाओ तो बच्चा होगा। मैं स्कूल से लौटते हुए चुकंदर की पत्तियां सब्जियों के ठेले पर खोजता आता। एक रोज़ जब कमरे से शशि निकली तो दोनों रो रहे थे। निकलने के बाद हनुमान की तस्वीर हंस रही थी या रो? देखने की फुर्सत न मिली।

शशि की उमर 17 या 18 थी और वो बच्चा गिरा चुकी थी। बाद के दिनों में पता नहीं वो इसी वजह से या किस वजह से जब जब पेट दर्द से पुल बन जाती तो मैं 'इंसा' होने के मतलब सोचा करता था और फिर उसके होश में आने पर चौंका भी करता था। शशि शायद परिवार के अंधविश्वासी होने और खुद के प्यार में होने का खुद से बदला ले रही थी कि तुम जिसे जल का जादू समझ रहे हो वो मेरा दर्द है और होश में यूं आना 'ढोंग'।

शशि के भीतर की कम उमर की मां अपने बच्चे और उसके पिताजी को खोने के गम में चीखते हुए पुल बन जाती थी!

एक दिन चीख बंद हो गई, पुल टूट गया।

टिप्पणियाँ

  1. मुझे अमूमन ब्लॉग पर टिप्पणी लिखने की आदत नहीं। बस एक बात से लिख रही हूँ।
    जब भी हम ज्यादातर लोगों को कहते हैं 'तुम्हें लिखना चाहिए' तो हर बार उन शब्दों का वही मतलब नहीं होता।
    जब मैं तुम्हें कह रही कि तुमको लिखना चाहिए क्योंकि तुम चीजों को भीतर से देखते हुए भी दूर हो जाते हों। कई बार यह स्टाइल पढ़ने वाले को लिखे हुए में ज्यादा उतार देती है। बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं।
    न लिख कर तुम एक गुनाह कर रहे हो। बस।

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