संजय दत्त: नरगिस की पप्पी से जादू की झप्पी तक


'अपना लाइफ कभी अप, कभी डाउन. ड्रग्स लिया. महंगे होटलों में भी रहा और जेल में भी. घड़ियां भी पहनीं, हथकड़ियां भी. 308 गर्लफ्रेंड्स थीं और एक एके-56 राइफल.'


देवियों और सज्जनों, उत्साह की पेटी बांध लीजिए. आगे संजय दत्त उर्फ़ संजू की कहानी है. इस कहानी की शुरुआत सबसे अच्छे से वो सुना पाएंगी, जिन्होंने संजय को जन्म दिया...नरगिस.


''मैं नरगिस हूं. वो मदर इंडिया, जिसने गलत काम करने वाले अपने बेटे बिरजू को गोली मार दी थी.  लेकिन ये पर्दे की बात थी. आर्टिस्ट और मां का दिल टकरा सकता है. ये बात 29 जुलाई 1959 को संजय के पैदा होने के बाद के सालों में महसूस हुई.


मेरा और सुनील दत्त साहेब का बेटा संजय. संजय को जब टब में बैठाकर नहलाती या तैयार कर चूमती तो वो मेरे कांधे से पीठ की तरह मुंह छिपा लेता. कैमरे की तरफ़ नहीं देखता था, लेकिन बाद के दिनों में उसने ज़िंदगीभर कैमरे के सामने रहना चुना.



संजय दिल का बहुत अच्छा है. एक बार नरीमन प्वॉइंट पर हमारे ड्राइवर कासिम भाई ने सड़क पर गाड़ी के पास बार-बार घूमते एक बच्चे को तमाचे लगा दिए. संजय गाड़ी से घर लौटते हुए खूब रोया. हमें गाड़ी वापस लेनी पड़ी. उस बच्चे को दूध की बोतल दिलाई...तब संजय चुप हुआ.

संजय के पैदा होने के बाद मैं जब शूटिंग के लिए जाती तो वो रोने लगता. स्टूडियो में मैं भी फ़िक्रमंद रहती कि वो ठीक तो होगा. इसलिए मैंने फ़िल्म इंडस्ट्री छोड़ने का फ़ैसला किया.

हमारी आदतों से वो तनिक बिगड़ चला था. एक बार कश्मीर में सुनील साहेब ने मज़ाक में संजू को सिगरेट पकड़ाई तो वो एक बार में पूरी सिगरेट पी गया. सुनील ये देखकर हैरान थे. कुछ साल बाद हमारे घर पर सुनील से मिलने प्रोड्यूसर्स या दोस्त आते या पार्टी होती तो जो सिगरेट ये लोग पीकर फेंक देते. संजय उन्हीं बची हुई सिगरेट को उठाकर छिपकर पीता. संजय इस वक्त 10 से भी कम साल का था.

एक दिन सुनील साहेब ने ये सब देख लिया.  संजय को मुंबई के कैथड्रल स्कूल से निकालकर हिमाचल प्रदेश के द लॉरेंस स्कूल सनावर बोर्डिंग में भेज दिया.  संजय के अगले कुछ साल वहीं बीते.

संजय को बचपन में म्यूज़िक का शौक था. वो स्कूल में सबसे पीछे ड्रम बजाता चलता. मेरी बेटी प्रियदर्शिनी (प्रिया दत्त) कहती है- संजय को सिर्फ एक ही तरह स्कूल ड्रम जैसा बजाना आता था.

1971 के युद्ध के बाद जब भारत से बांग्लादेश कलाकार परफॉर्म करने गए तो संजय भी ज़िद करने लगा. सुनील साहेब ने कहा कि वहां वो कलाकार जाएंगे, जो कुछ बजा या गा सकें. संजय बोला- मैं बांगो बजाऊंगा.

हारकर संजय को भी सुनील ले गए. स्टेज पर लताजी गाना गा रही थीं. गाते हुए अचानक लता रुकती हैं और पलटकर देखती हैं. क्योंकि बांगो ग़लत बज रहा था. पीछे संजय थे, ये देखकर वो गाना जारी रखती हैं.
1977 में संजय लॉरेंस स्कूल से 18 बरस की उम्र में घर लौटा.


संजय का दाखिला एल्फिंस्टन कॉलेज में करवाया गया. कुछ वक्त बाद संजय मुझे कुछ अजीब लगने लगा. संजय के कमरे से अगरबत्ती सी महक आती. मुझे हैरत होती कि संजय घंटों कमरों में बंद क्यों रहता है.

मुझे शक था कि संजय कहीं ड्रग्स...! नहीं, मैंने ये बात सुनील साहेब से कभी नहीं कही.

संजय ने तय कर लिया कि वो फ़िल्मों में करियर बनाना चाहता है. सुनील साहेब ने संजय की ट्रेनिंग करवाई. जब संजय फ़िल्मों के लिए तैयार हो गया तो उन्होंने रॉकी फ़िल्म में संजय को बतौर हीरो लिया और टीना मुनीम को हीरोइन. फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई.

लेकिन तभी एक रोज़ मुझे कैंसर होने की बात पता चली. सब मायूस हो गए. सुनील मुझे लेकर अमरीका गए. मैं कुछ वक्त कोमा में रही. दो महीने बाद जब मुझे होश आया तो मैंने सबसे पहले पूछा- संजय कहां है?

अस्पताल में सुनील साहेब मेरी आवाज़ें रिकॉर्ड किया करते. मैंने एक दिन सुनील साहेब से कहा था, ''जब इंसान बीमार होता है तो बुरे-बुरे ख़्यालात ज़्यादा आते हैं. आई डोंट नो कि मैं क्यों नहीं ऐसा सोचती. कि मैं जल्दी से अच्छी हो जाऊं. अपने घर जाऊं, अपना कामकाज संभालूं. अपने बच्चों की खुशी देखूं. अंजू की शादी... वैसे ही करूंगी जैसे मां करती है.''

मैंने संजय के लिए भी एक ऑडियो टेप अस्पताल में रिकॉर्ड करा था. मुझे भारत लौटना था, इसलिए तबीयत ठीक होते ही मैं हिंदुस्तान लौट आई.

संजय की पहली फ़िल्म की शूटिंग ज़ोरों पर थी. मैंने सुनील साहेब से कह दिया था- चाहे जैसे करिए, मुझे मेरे बेटे का फ़िल्म प्रीमियर पर जाना है. स्ट्रेचर, व्हीलचेयर सब इंतज़ाम कर दीजिएगा. सुनील साहेब ने सारी तैयारी कर भी दी थी.


7 मई 1981 को रॉकी का प्रीमियर होना था. लेकिन मेरी तबीयत फिर बिगड़ गई. मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया. मेरा शरीर जवाब देने लगा. फ़िर आई मेरी इस दुनिया को अलविदा कहने तारीख़, 3 मई 1981.''


संजय दत्त की पहली फ़िल्म रॉकी की रिलीज़ से ठीक चार दिन पहले नरगिस इस दुनिया में नहीं रही.  लेकिन सिनेमाई पर्दा हो या ज़िंदगी, किसी के आने या जाने से कहानियां रुकती नहीं हैं.




...आगे की बातें, संजय दत्त की 'ज़बानी'

''मां मरीं तो मैं बिलकुल भी नहीं रोया. उस दौरान मुझमें कोई इमोशन नहीं थे. रॉकी के फ़िल्म प्रीमियर के दिन मॉम के लिए सिनेमाहॉल में एक कुर्सी खाली रही. किसी ने आकर डैड से पूछा- दत्त साहेब ये सीट खाली है. डैड ने कहा- नहीं, ये मेरी पत्नी की सीट है.  रॉकी रिलीज़ हुई और लोगों को पसंद भी आई.


मां के जाने के बाद मैंने दो चीज़ों के और क़रीब आ गया. पहली टीना मुनीम और दूसरे ड्रग्स.

जितने भी तरह के ड्रग्स होते हैं, मैंने सब लिए. कहा जाता है कि 10 में से एक इंसान को किसी न किसी चीज़ की लत होती है. ये लत खाने, जुआं खेलने, शराब पीने या ड्रग्स लेने की हो सकती है. मैं इन 10 में से एक वाला था. ड्रग्स लेना एक तरह की बीमारी है.

घर पर कभी किसी  ने ड्रग्स नहीं लिया था तो मेरे बारे में जल्दी उन्हें पता नहीं चला. हां बाद के दिनों में कहीं कभी हीरोइन, कोकीन मिलने लगा तो शक बढ़ने लगा. एक ड्रग के लती को कोई स्वीकार नहीं करता है. लेकिन डैड ने मुझे स्वीकार किया. वो प्रोड्यूसर्स को फोन कर कहते- तुम मेरे बेटे को लेने से पहले सोच लो, वो ड्रग्स लेता है.


जितने भी तरह के ड्रग्स होते हैं, मैंने सब लिए. मारयुआना, कोकीन, हीरोईन. कभी मैं बाथरूम में छिपकर ड्रग्स लेता तो कभी कहीं और.

फिर एक दिन सुबह मेरी आंख खुली. पास में एक नौकर खड़ा था. मैंने कहा- भूख लगी है कुछ खाने को लाओ.

ये सुनकर उनकी आंखों में आंसू आ गए. मैंने वजह पूछी तो वो बोले- आप दो दिन बाद सोकर उठे हैं. मैंने शीशा (आईना) देखा तो चेहरे पर सूजन थी, बिथरे बाल थे.


मुझे लगा कि मैं मर जाऊंगा. मैं डैड के पास गया और बोला- मुझे आपकी मदद चाहिए. डैड ने मुझे मुंबई के ब्रीच कैंडी  अस्पताल में भर्ती कराया.

ये वो वक्त था, जब मैं ड्रग्स और दोनों से दूर हो रहा था. टीना से मेरा रिश्ता खत्म हो गया. 1984 की शुरुआत में मेरी लत छुड़ाने के लिए डैड मुझे अमरीका ले गए.

अमरीका के रिहेब सेंटर में मैं एक ग्रुप में बैठा था. तभी एक लड़के ने अचानक  मॉम का मेरे लिए रिकॉर्ड किया टेप चलाया.

'किसी भी बात से ज्यादा संजू अपनी विनम्रता और चरित्र बचाए रखना. कभी दिखावा मत करना. हमेशा विनम्र रहना और बड़ों की इज़्ज़त करना. यही एक बात होगी जो तुम्हें दूर तक ले जाएगी. ये तुम्हें तुम्हारे काम में भी मदद करेगी.'

मैंने अपनी  मॉम की आवाज़ सुनी तो मैं घंटों रोया. मॉम के मरने के दो साल बाद टेप में मॉम की आवाज़ सुनकर मैं चार-पांच घंटे रोया. जब आंसू रुके तो मैं बदला हुआ था.

नौ महीने बाद भारत लौटा तो मेरे घर पहुंचने के बाद जो पहला शख्स मुझसे मिलने आया, वो था एक ड्रग पैडलर. मेरे पास दो रास्ते थे. पहला मैं ड्रग्स ले लेता. दूसरा मैं इंकार कर देता. मैंने दूसरा रास्ता चुना.


लेकिन ये भी तय किया कि अब फिल्म इंडस्ट्री छोड़कर अमरीका में बिजनेस करूंगा. कौन मुझ पर पैसा लगाएगा. लेकिन तभी पप्पू वर्मा ने 'जान की बाज़ी' फ़िल्म के लिए मुझे ले लिया. ये फ़िल्म 1985 में रिलीज़ हुई और मैं अमरीका नहीं जा पाया.

फिर अपने यार, नम्रता के पति और राजेंद्र कुमार के बेटे कुमार गौरव के साथ फ़िल्म नाम की. फिल्म हिट रही.

फिल्म के गानों के बोल भी कुछ वैसे थे, जैसे मुझे अमरीका जाने से रोकने के लिए लिखे गए हों.

'तू कल चला जाएगा..... चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है..'

कई मुहब्बतों के बाद मेरा दिल रिचा शर्मा पर जा टिका. वो देवानंद की खोज थी. हम मिलने लगे और एक-दूजे के करीब आ गए.

1987 में हमने शादी की और अगले ही साल हमें एक बेटी हुई, त्रिशाला. लेकिन अचानक रिचा के सिर में दर्द होने लगा. डॉक्टर्स को दिखाया तो पता चला ब्रेन ट्यूमर है. इलाज के लिए रिचा और त्रिशाला अमरीका शिफ्ट हो गईं.

मेरी कुछ फ़िल्में लगातार फ्लॉप रहीं. लेकिन माधुरी दीक्षित और सलमान खान के साथ की 1991 में आई फ़िल्म साजन हिट रही. 'मेरा दिल भी कितना पागल है, जो प्यार ये तुमसे करता है' गाने लोगों को खूब पसंद आए.

माधुरी दीक्षित से मेरे रिश्तें की ख़बरें और दावे मीडिया में खूब छपा. रिचा और मेरे बीच दूरियां बढ़ने लगीं. रिचा की बीमारी फिर लौट आई.


रिचा और मेरे बीच दूरियां बढ़ गईं. डैड मुंबई से कांग्रेस के लोकसभा सांसद थे. फिर आया साल 1993.

वो साल, जब पर्दे और पर्दे से बाहर लोगों के लिए एक खलनायक आया था.

अब तक की कहानी दत्त परिवार के कई पुराने ऑडियो-वीडियो इंटरव्यू पर आधारित थी. लेकिन संजय दत्त से जुड़े सबसे अहम और स्याह पन्ने अभी पलटने बाकी हैं.


सिर्फ़ नायक, खलनायक ही नहीं रहा संजय!

'तुम क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाओगे. रह जाएगा सिर्फ़ एक इंसान. सर्वशक्तिशाली, सर्वशक्तिमान.'

संजय दत्त का नाम आते ही जिस एक फ़िल्म और गाने को सबसे ज़्यादा घिसा गया, वो है खलनायक. लेकिन संजय को अग्निपथ फ़िल्म के रीमिक्स के उस कांचा के रोल से भी समझा जा सकता है- जो है वो विलेन लेकिन गीता का सार गाता फिरता है.

1993 मुंबई बम धमाकों में जिस एक नाम के सामने आने पर लोग सबसे ज्यादा चौंके थे, वो थे संजय दत्त.


बम धमाकों के बाद मुंबई पुलिस को शुरुआती जांच में पता चलता है कि दाऊद इब्राहिम के भाई अनीस से हनीफ कड़ावाला और समीर हिंगोरा के संपर्क में थे. दोनों को पूछताछ के लिए बुलाया जाता है. पूछताछ में संजय दत्त का नाम सामने आता था. संजय मॉर्शियस में थे और शूटिंग कर जब मुंबई लौटे तो पुलिस ने टाडा के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया.

संजय दत्त को पुलिस हेडक्वॉर्टर ले जाया गया, जहां संजय ने अपने पास एक एएके-56 होने की बात स्वीकार की.

किताब  'द क्रेजी अनटोल्ड स्टोरी ऑफ बॉलीवुड बैड बॉय' में यासीर उस्मान लिखते हैं, ''संजय ने पुलिस को बताया कि फिरोज ख़ान की यलगार फ़िल्म की शूटिंग के दौरान दुबई में उनकी मुलाकात दाऊद और अनीस से हुई थी. संजय ने अबु सलेम, हनीफ और समीर से तीन एएके-56 ली थी. लेकिन दो एएके-56 बाद में लौटा दी थी. संजय ने पुलिस से ये भी माना कि सुनील दत्त के फोन आने के बाद उन्होंने यूसुफ से कहकर घर से एएके-56 हटाने की बात कही थी.''


सुनील दत्त को ये यकीन नहीं हो रहा था कि संजय ऐसा कैसे कर सकते हैं? वो संजय से ऐसा करने की वजह पूछते हैं.

तहलका की एक रिपोर्ट के मुताबिक़,  ''संजय सुनील से कहते हैं- क्योंकि मेरी रगों में मुस्लिम खून दौड़ रहा है. शहर में जो हो रहा था, मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता.''


संजय के हथियार रखने की एक वजह 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए दंगे भी थे, ऐसा दावा करने वालों में एस हुसैन ज़ैदी भी हैं.

'माई नेम इज अबु सलेम' किताब में ज़ैदी लिखते हैं, ''बाबरी गिराए जाने के बाद मंबई में भीषण दंगे हुए.  सुनील दत्त ने घायलों के धर्म की परवाह किए बगैर लोगों की मदद की. संजय भी बढ़ चढ़कर आए. कुछ लोगों को ये बात जमी नहीं. कुछ उग्रपंथई संगठनों ने दत्त परिवार को गालियां और धमकियां देनी शुरू की. कुछ जगह सुनील दत्त पर हमले भी हुए. संजय इन फोन कॉल्स से परेशान आ चुके थे. फिल्मी हीरो को लगा कि असल लाइफ में हीरो बनने का वक्त आ गया है.''


संजय को कुछ दिन जेल में रहना पड़ा लेकिन वो बेल पर बाहर आ गए. फ़िल्मी अफवाहों वाली पत्रिकाओं में जहां कभी माधुरी-संजय के रिश्ते बनने की ख़बरें छपती थीं, अब उनमें दोनों के रिश्तों के टूटने की ख़बरें छपने लगीं.

संजय के जेल जाने का जिस एक आदमी को सबसे ज़्यादा फ़ायदा पहुंचा वो थे सुभाष घई. खलनायक 1993 की बड़ी हिट रही. यही वो साल था, जब संजय की मुलाकात मॉडल राहिया पिल्लई से मिले.


एक साल तक ज़मानत पर रहने के बाद जुलाई 1994 में संजय को फिर जेल जाना पड़ा. इस बार सीधा अंडा सेल. यानी वो जगह जहां सबसे खूंखार अपराधियों को रखा जाता है.

इन दिनों संजय की प्रिया दत्त से कम बनने की खबरें छाई रहती हैं. लेकिन जेल के दिनों में दत्त भाई-बहनों के बीच का किस्सा फारुख शेख के शो 'जीना इसी का नाम है' से दुनिया ने जाना.

प्रिया दत्त ने इसी शो में बताया था, ''रक्षा बंधन में हम जेल में गए तो डैड ने कहा- राखी बांधो. संजू ने भारी मन से कहा- मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है लेकिन ये कूपन मैंने बचाए हुए हैं. ये कूपन जेल में चाय खरीदने के लिए मिलते थे.''

प्रिया ने 1998 में कहा था- संजय वो कूपन मेरे पास अब भी हैं.


सिमी ग्रेवाल के शो Rendezvous में संजय ने जेल के दिनों का एक किस्सा बताया था. संजय ने कहा, ''जेल में डैड मिलने आते तो कहते- कल हो जाएगा बेटा कल हो जाएगा. ऐसे ही तीन चार महीने चलता रहा. एक दिन डैड जब आए और बोले- कल हो जाएगा बेटा तो मैं चिल्ला पड़ा, डैड कब हो जाएगा. ये सुनकर डैड ने  मेरा कॉलर पकड़ा और रोते हुए कहा- मुझे माफ कर बेटा, अब मैं तेरे लिए कुछ नहीं कर सकता.''


यासीर उस्मान किताब में लिखते हैं कि जब सुनील दत्त को तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार से किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली तो वो बाला साहेब ठाकरे के पास गए. ठाकरे ने खुलकर संजय का बचाव किया और कहा कि दत्त परिवार का कोई भी सदस्य देशविरोधी नहीं है.


ये इन्हीं ठाकरे की शिवसेना थी, जो एक वक्त में संजय दत्त की फ़िल्मों का जमकर विरोध कर रही थी.

जेल जाने के 15 महीने बाद संजय को राहत मिली अक्टूबर 1995 को. माथे पर टीका लगाए, सफेद कुर्ता पहने संजय जेल से बाहर निकलकर संजय आज़ाद घूम रहे थे.

खुशी में कई बार गम का न्योता भी छिपा होता है. दिसंबर 1996 में रिचा शर्मा ने आखिरी  सांस ली. लेकिन कई मौकों पर लड़कियों के दिल जीतने का  नुस्खा बताने वाले संजय प्रेम के रिवीज़न में यकीन रखने वाले लोगों में शामिल थे.

राहिया पिल्लई से उनकी नज़दीकियां और बढ़ने लगीं. राहिया  से 1998 में संजय ने शादी कर ली. 1999 संजय के लिए 'पचास तोला' साबित हुआ. वास्तव फ़िल्म हिट रही और संजय को बेस्ट एक्टर का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला.



साल 2000 में ऐसे ऑडियो सामने आए, जिनमें संजय दत्त छोटा शकील से बात करते  सुनाई दिए.  ये ऑडियो इंटरनेट पर आज भी मिल जाएंगी.

यासीर उस्मान अपनी किताब में लिखते हैं, ''सीबीआई इन कॉल्स को रिकॉर्ड कर रही थी. 2002 में इन्हें सबूत की तरह पेश किया गया.


मुंबई के 58 पाली हिल के जिस बंगले में नरगिस ने एक घर बसाया था, उस घर का हर सदस्य अब अलग-अलग रहने लगा था. साल 2003 में संजय दत्त को एक ऐसी फ़िल्म मिली, जिसने संजय की छवि को काफी फायदा पहुंचाया.


मुन्नाभाई एमबीबीएस फ़िल्म, जिसमें सुनील दत्त ने संजय के पिता का रोल किया था, बड़ी हिट साबित हुई. दो साल बाद 2005 में सुनील दत्त ने आखिरी सांस ली. एक बाप और पति, जिसने अपनी सांसों का बड़ा हिस्सा दुखों को खत्म करने में काट दिया.


राहिया से संजय का रिश्ता 2008 तक चला. इसके बाद संजय मान्यता प्राप्त हो गए. मान्यता यानी दिलनवाज शेख. जिन्होंने प्रकाश झा की फ़िल्म अल्हड़ मस्त जवानी आइटम सॉन्ग किया और चर्चा में आईं.

संजय के मान्यता तो करीब आईं लेकिन बहनें प्रिया, नम्रत और जीजा, दोस्त कुमार गौरव दूर हो गए. संजय-मान्यता की शादी में दोनों बहनें शामिल नहीं हुईं. लेकिन 2010 में जुड़वा बच्चों इकरा और शाहरान को मान्यता ने जन्म दिया. दोनों बुआओं का गुस्सा कुछ कम हुआ.


लेकिन 1993 के दाग अब भी संजय के दामन पर थे. 2006 में जिस मुन्नाभाई ने लोगों को गांधीगीरी सिखा दी थी, अभी उसके हिंसा के हथियारों को पकड़ने की सज़ा बाकी थी. 2007 में टाडा कोर्ट का फैसला आता है कि संजय आतंकी नहीं हैं लेकिन उन्हें छह साल की सज़ा सुनाई जाती है. संजय जेल तो जाते हैं लेकिन जल्द बेल पर बाहर निकल आते हैं.

2013 में सुप्रीम कोर्ट संजय दत्त की सज़ा घटाकर पांच साल कर देती है. संजय इसी साल जेल चले जाते हैं और फरवरी 2016 में अच्छे व्यवहार के चलते संजय को जेल से जल्दी रिहा करने का फैसला होता है.

फरवरी 2016 में संजय एक बार फिर माथा पर टीका लगाए बाहर आते हैं. जेल के अंधेरे से निकले संजय के लिए आखिरकार 'सुबह हो गई मामू.'

ख़ासतौर पर तब, जब संजय दत्त की ज़िंदगी पर एक फ़िल्म संजू बनी है. फ़िल्म में रणबीर कपूर संजय का किरदार निभा रहे हैं. ये वही रणबीर हैं, जिनके पिता को एक ज़माने में संजय दत्त गुलशन ग्रोवर के साथ पीटने चले गए थे. वजह थी संजय की टीना से मुहब्बत.

आटोबायोग्राफी 'खुल्लम खुल्ला' में ऋषि कपूर लिखते हैं, ''एक दिन संजू और गुलशन ग्रोवर नीतू के अपार्टमेंट में गए. उन्हें शक था कि मेरे और टीना के बीच कुछ है. बाद में गुलशन ग्रोवर ने मुझे बताया कि संजय नीते के घर मुझसे लड़ने आया था. लेकिन नीतू ने संजय को समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम समझ रहे हो. टीना और चिंटू (ऋषि कपूर) के बीच कुछ नहीं चल रहा है.''


संजय ने अब तक क़रीब 130 फ़िल्मों में काम किया है. समाजवादी पार्टी के पाले में रहते हुए राजनीति में भी हाथ आजमाया, इस वजह से बहन से मतभेद भी हुए. 4545 नंबर की कारों के रखने के शौकीन संजय इस उम्र में भी कुछ लोगों के लिए संजू बाबा ही हैं. बाबा कहे जाने को कुछ मजबूती संजय के बदन पर गुदे संस्कृत टैटू के मंत्रों को देखकर भी मिल जाती है.

टैटू, जिनमें सुनील नरगिस का नाम भी है, ऊं नम: शिवाय भी और आग फेंकता ड्रैगन भी.


ड्रैगन, जो एक खलनायक है.

'अग्निपथ' फ़िल्म के रीमेक में कांचा बने संजय दत्त एक सीन में 'शीशे नहीं चाहिए, ज़िंदगी में शीशे नहीं चाहिए' कहते हुए सारे शीशे तोड़ देता है.

संजय ने भी शायद अपनी ज़िंदगी में यही लाइन अपनाए रखी. अपने कड़वे सच के सामने आते ही संजय ने खुद से कहा होगा- ज़िंदगी में शीशे नहीं चाहिए...

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