...ज़िंदगी शिउली की तरह शॉर्ट होती है


शिउली रात को खिलता है. सुबह या दिन में खोजो तो गिरा मिलेगा.


शायद रात के एकांत में उसे सुकून मिलता हो कि कोई घूर नहीं रहा आओ खिल लिया जाए. ठीक वैसे जैसे प्यार करने वाले कहते हैं- कोई देख नहीं रहा आओ गले लगकर एक-दूजे में घुल लिया जाए.

मगर कारखानों के बाद की शामों के खाते में शिउली कम नसीब हुए. सुबह खोजो तो मिलते नहीं. शिउली को इंग्लिश में क्या बोलते हैं, ये पता करके ऑनलाइन मिल भी जाए तो वो उठाने या पत्तियों से इजाज़त लेकर शिउली को छूने का सुख चला जाएगा.

किसी फ़िल्म की वजह से किसी फूल से ऐसा ऑबसेशन, इतना अफेक्ट होना.  'तुम लोग इतने अनइफेक्टेड कैसे हो?'

ये अक्टूबर सिर्फ़ 31 की ही क्यों होता है. शिउली जल्दी मुरझा जाते हैं. इनमें इतना भी सब्र नहीं कि शाम को अपने-अपने शहरों के यमुना बैंक स्टेशनों पर बैठे लोगों तक खिले रहें. कि किसी को दिए जा सकें अक्टूबर के किसी पहले या आखिरी दिन, तो ठीक वैसे लगें जैसे मेट्रो की इलैक्ट्रिक वायर से टूटकर गिरे हों.

या फिर पागलपन में ये किया जाए कि गमलों के बीच की कोई जगह बना दी जाए.

प्यार करने वाले आएं, अपनी-अपनी शिउलियों की खुशबू के वास्ते, और फिर आस्ते आस्ते खुलें मोहब्बत के रास्ते.

तस्वीर: सुमेर

पार्क की सीट पर बैठे हुए सिर पर आए मच्छर से अक्टूबर फ़िल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक लगते हैं. जैसे कोई बेसुरा वॉयलेन बजा रहा हो. वॉयलेन की आवाज़ को लिखने का हुनर आ जाता तो कितना सुख रहता. मगर किसी ने एक रोज़ कहा- हर चीज़ को क्यों ही लिखना है. शायद सही भी है. मगर कुछ लोगों के पास और कोई ज़रिया नहीं होता किसी को पूरा महसूस कर लेने का. इसलिए वो, नहीं वो नहीं...मैं और मुझ जैसे लोग अपना औसत, घटिया सा मगर मन का लिख देते हैं. 


'तुम्हारे सिर पर मच्छर आ गए हैं खूब सारे.'
'हैं? अरे तुम्हारे सिर पर भी हैं.'

पार्कों में बैठे लोगों की बातें चुपके से सुननी चाहिए. वो सिर्फ़ दुनिया की सबसे ऊंची मूर्तियां नहीं हैं, जिनका अनावरण होता है. कुछ बातें कुछ घटनाएं हमारे भीतर का अनावरण कर जाती हैं. जैसे कुछ हो, जिस पर हमने सालों साल पर्दा डाला हुआ था. फिर अचानक कुछ होए ऐसा कि गाना बजने लगे,


'साल बदला, हाल बदला तेरे आने से
ज़िंदगी का ख्याल बदला तेरे आने से
ज़रा ज़रा सा डूबा डूबा तुझ में रहता हूं
ठहर जा तू किसी बहाने से'

पार्क की दीवारों के किनारे की दुकानें हमारे दौर की सबसे अच्छी कहानियां लिख सकते हैं. वो सब देख रहे होते हैं. कोयला जलाकर इस्त्री करते हुए हाथों ने कितने ही पुरुषों को स्त्री और स्त्रियों को पुरुष होते देखा होगा.

कुछ शामों के अंधेरे लड़कियों को डराते नहीं हैं. यक़ीन से भर देते हैं कि ये निहारती आंखें मुझे दुनिया की घूरती आंखों से बचाकर रखेंगे.

उधर मेज पर कोयला जलाए हाथ किसी शर्ट की बाजुओं पर इस्त्री कर रहे होते हैं. इधर पार्क की सीट पर बाजुएं मिल रही होती हैं. जब तक किसी शर्ट की तह लगती है, शायद उतनी ही देर में तो लबों पर लबों की तह लग जाती है. कपड़ों में चमक आए, इसलिए पानी छिनका जाता है. लब ऑटोमैटिक होते हैं. दिल और होंठ गीले हो जाते हैं. उधर कपड़ों में चमक आती है, इधर आंखें चमकने लगती हैं.

'कुछ कहना है?
लव यू टू
क्या?
कुछ नहीं.'

शराब क्या है? नशा. हवा में उड़ने सा सुख. लगे कि जूते पहने हुए नहीं हैं. कहीं से लौटें तो लगे कि उड़कर लौट रहे हैं. अगर यही काम करती है कोई बोतल, तो हम सबने बिना बोतल छुए न जाने कितने नशे किए हैं.

मगर जैसा अपना हैदर वाला रूहदार कह गया है, ''तलाशी की इतनी आदत पड़ गई है यहां लोगों को कि जब तक कोई टटोल न ले तब तक अपने घर में घुसने की हिम्मत नहीं होती.'

लोग ये जान ही नहीं पाते कि नशा सिर्फ बोतल से नहीं चूमा जाता. ये जो दिल है, इसके ज़िम्मे सिर्फ़ खून फेंकना और धड़कना ही नहीं है और फिर कौन ये साबित करे कि मुहब्बत जो होती है या कहलाई जाती है...उसका सारा ठेका दिल के रास्तों से होकर गुज़रता है.

ये शायद हम ही हैं. आंखों, हाथों, लबों और बाजुओं वाले...जिनका किसी से मिलकर दिल तेज़ धड़कने लगता है या फिर थम जाता है. हम समझते हैं कि ये दिल है.

मुझे तो इसमें आंखों की कोई साजिश लगती है.

एजेंट सी आंखें
मुहब्बत की करें चुगलियां
जो कानों के रास्ते
बालों में जाएं तेरे उंगलियां
हैं हम भी यहीं अपनी सी हिफाज़त लिए
मुहब्बत कुछ हम किए, कुछ तुम किए

'लव यू टू...'
क्या?
'कुछ नहीं.'

ज़िंदगी में कुछ शिउलियां और डैन ऐसे आते हैं, जिन्हें गिरने नहीं देना चाहिए. अगर मन कहे तो... सुकून मिले तो.

रिश्तों और फूलों की खुशबू रहता वक़्त बीतते देर नहीं लगती. ज़िंदगी शायद शिउली की तरह बहुत शॉर्ट होता है.

टिप्पणियाँ

  1. विकास भाई,मैंने 'अक्टूबर' आज ही पहली बार देखी है,उसके बाद आपका ये ब्लॉग पढ़ने को मिल गया,फ़िल्म के बाद जो सवाल रह गए थे उनके उत्तर भी खुद ही मिल गए.

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