शाहरुख बेकार सा लगता है...


‘शाहरुख़ बिलकुल नहीं पसंद, बेकार सा लगता है’

ऐसा कहने वाले वो लोग हैं जो ख़ुद के शाहरूख ना होने की बात से चिढ़ते हैं. बस इस बात को समझते नहीं हैं. ख़ुद से ख़ुद का सच कहने का सुख सबको नसीब नहीं हो पाता है. हो पाता तो हम अपने अपने कारख़ानों की खिड़कियों से झाँकते हुए कह पाते मैं क़ैदी नम्बर 786 कारख़ाने की सलाखों से बाहर देखता हूँ. दिन, महीने, सालों को युग मे बदलते देखता हूँ.

शाहरूख होने का अहसास कितना ख़तरनाक हो सकता है ये वो हाल के दिनों की फ़िल्मों को देखकर लगा सकते हैं...जिसमें ख़ुद के शाहरुख़ होने की बात लिए शाहरुख़ नज़र आया. अमन, राज मल्होत्रा, कबीर खान, अमरकांत वर्मा, जहांगीर, मोहन भार्गव कहीं पीछे रह गए.




‘जब से गाँव से मैं शहर हुआ
इतना कड़वा हो गया कि ज़हर हुआ’

शाहरुख़ नाम का आदमी प्यार करना सिखाता है. मगर वो ये बात शायद भूल जाता है कि प्यार के लिए बाँहें फैलायी जाती हैं तो समेटी भी जाती हैं कि रिश्तों की गरमाहट बनी रहे. जब सिकुड़न वाले दिन होंगे ये गरमाहट ही राहत देंगी. बम्बई का सबसे सुंदर समंदर शाहरुख़ के घर के बाहर है. ठीक एक बरस पहले गया था तो देखा शाहरुख के घर के बाहर अथाह समंदर है. महबूबा के लिए हाथ फैलाने का शाहरुख का मशहूर स्टाइल समंदर से चुराया हुआ है. समंदर रोज़ शाहरुख के लिए हाथ फैलाए रहता है. शाहरुख ने फ़िल्मों में बस समंदर की नकल की है और गेट पर हाथ फैलाकर तस्वीर खिचा रहे लोगों को यकीन है कि वो शाहरुख की नकल कर रहे हैं.

'दिल कब सीधी राह चला है
राह मुड़े तो मुड़ जाने दो'

शाहरुख के घर के बाहर का समंदर...

न जाने क्यों इस आदमी पर ये सच जानते हुए भी कि फ़िल्मी लाइन है..मगर यकीन करने को दिल चाहता है. लगता है कि साला फिल्म में जो बोल रहा है, असल में हो नहीं सकता. मगर अगर ज़िद करके किया जाए या भीतर से अपने आप निकल जाए तो न जाने कितने शाहरुख असल ज़िंदगियों के शाहरुखों की नकल करने लगेंगे. फिर चाहे महबूब के लिए मां-बाप को छोड़कर कभी खुशी में रहना कभी गम में. या फिर किसी दूसरे की मां के लिए खुद के महबूब को छोड़ देना.

''लोग कहते हैं न मुहब्बत अंधी होती है. हमें भी अपनी मुहब्बत में कुछ दिखाई ही नहीं दिया. बस एक दूसरे को ही देखते रहे. बाकी और कुछ देखा ही नहीं. पर अब सब साफ दिख रहा है. कोई भी मुहब्बत किसी की जान से ज़्यादा कीमती नहीं होती. आप निकाह की तैयारी कीजिए. ज़ारा से मैं बात कर लूंगा. मैं वादा करता हूं.
तेरे मुल्क का हर बेटा तेरे जैसा है क्या?
ये तो नहीं पता. मगर मेरे देश की हर मां आप जैसी ज़रूर हैं.''

ये ऐसे ही तो सीन होते हैं, जब असल ज़िंदगी के कितने लोग दूसरे की आंख में डालकर कह देते हैं- चिंता मत करो, घरवालों को मैं समझाऊंगा.

या शायद ऐसे सीन असल ज़िंदगी के उठाए हुए होते हैं. हां पर्दे पर वो शाहरुख ही है, जो बिना आंसुओं के ये कह देता है- एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ और होती है, सिर्फ मेरा हक है इसपे..मेरा. अगर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है तो जो चाहे लगा लो, डर कैसा. अगर जीत गए तो क्या कहना. अगर हारे भी जो बाजी मात नहीं.

असल ज़िंदगियों के कितने सीन फ़िल्मों में चुराए गए हैं. और लोग हैं ये कि जब सामने कुछ ऐसा हो रहा होता है तो फ़िल्मी कहकर टाल देते हैं.

शायद इसलिए मुझे भी शाहरुख बिलकुल नहीं पसंद, बेकार सा लगता है.

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