शिव कुमार बटालवी: इक स्लो सुसाइड...


एक के गाल पर चेचक के गड्ढे. दूजे के हाथ पर ड्रग्स की सुइयों के गड्ढे, नाक में सफेद पाउडर के अड्डे.

ये दोनों जब अपने असल और फिक्शनल किरदार को जीते तो सालों पहले लिखे दो गीत फाहे की तरह खाल पर महसूस होने लगते.


'माये नी माये, मैं इक शिकरा यार बनाया...
चूरी कुट्टां तां ओ खांदा नाही, ओन्हुं दिल दा मांस खवाया'

'अर्धसत्य' सी ज़िंदगी के चक्रव्यूह से निकल चुके ओम पुरी जब ये सुनते तो फफककर रोते. ये रोना ऐसा होता कि नाक के नथूने फूल जाते. आंखें डबडबाने लगतीं और हाथ चेहरे पर आ जाते. जैसे डर हो कि गाल के गड्ढों में आंसुओं के बैठने को कोई देख न ले. ये असल किरदार जीता एक कलाकार था.

दूसरा कलाकार एक किरदार जी रहा था. उसे इक लड़की का पता चाहिए था, जिसे देखने के बाद कोकीन लेने का मन नहीं हुआ और ट्यून बजने लगी.

'इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत. गुम है गुम है गुम है.'

'उड़ता पंजाब' का टॉमी साइकिल लेकर गुम हुई कुड़ी से सुल्तानपुरा में मिला. लेकिन इसी सुल्तानपुरा से 80 किलोमीटर दूर बटाला में सालों पहले ज़िंदगी के असल को फिक्शनल सा जीता और फिक्शनल को असल में भोगता एक दूजा रॉकस्टार था, जिसकी मुहब्बत की तस्वीर कभी पूरी नहीं हुई.

''जितनी मुझे मुहब्बत मिली, पंजाब के किसी शायर को नहीं मिली. लेकिन वो तस्वीर बनी ही नहीं मेरे से. कभी बालों से किसी के. किसी की उंगलियों से. किसी के होंठों से. किसी के पैरों से...''

 

शिव कुमार बटालवी. तीन शब्दों का पद्य, जिसमें सिर्फ़ गद्य ही गद्य रहा. कविताओं में ज़िंदगी के 'इश्तहार' छापते बटालवी मुहब्बत के बारे में अर्धसत्य बताते. क्योंकि मुहब्बत की तस्वीर तो बटालवी की ज़िंदगी में कई बार बनी. लेकिन वो पूरी नहीं हुई. अधूरी तस्वीरों से मुहब्बत कर उन्हें पूरा करने का सुख और हिम्मत शायद बटालवी में नहीं थी. जैसे बटालवी के लिखे गीत गाने वाले जगजीत सिंह में थी, एक शादीशुदा औरत से मुहब्बत करके अपना बनाने की.

मुहब्बतें हुईं और बारी-बारी जुदा हुईं. कई वजहें रही होंगी. वो वजहें जो किस्सों में मुहैया हैं और वो वजहें, जो शायद बयां ही नहीं की गईं. फिर भी लोगों ने कविता में दर्द पढ़ा तो कहा- कविताएं छूटी मुहब्बत से निकली हैं. क्योंकि हर वो दिन 'जो अज्ज चढ्या है...वो कई गमा दी लंबी रात' समेटे हुए है.

हादसा: एक 11 साल का लड़का 1947 में बंटवारा देखता है. परिवार के साथ पाकिस्तान के सियालकोट से गुरदासपुर के बटाला आकर बसता है. 2019 में विस्थापन लिखने में भारी शब्द लगता है. 72 साल पहले जीने में कितना भारी लगता होगा. या शायद 11 की उम्र छोटी होती है. मगर पक्की मूरत तो कच्ची मिट्टी में ही बनती है.

मुहब्बत: 'अच्छा होता तेरा सवाल न करता...मुझको तेरा जवाब ले बैठा.' मैना, मीना या कोई और तीसरा नाम भी यहां लिख दूं तब भी ये सच बदलेगा नहीं कि बटालवी की मुहब्बत वाली तस्वीर के कोलाज में एक हिस्सा इनका भी रहा होगा. बचपन की मुहब्बत, जिसने सांसों को जल्दी जीकर ख़त्म कर डाला. या बड़े लेखक की बेटी, जिसने विदेश में घर बसा लिया. ये प्रेमिकाएं और उनका शिव ज़िंदगी से बागी होने की हिम्मत नहीं कर पाया. तो क्या हुआ जो मुहब्बत नाम की कुड़ी के गुम होने पर बाद में लिखते हुए बीता, ''दुखण मेरे नैनां दे कोये, विच हाड़ हंजुआं दा आईया. सारी रात गई विच सोचां. उस ए कि जुल्म कमाया.''

फ्रस्ट्रेशन: एक तहसीलदार बाप की औलाद शिव, जिसके सिर ये बोझ रहा कि करियर में कुछ अच्छा करना है. इंजीनियरिंग से आर्ट में भटकते हुए बैंक की नौकरी तक पहुंचने के बीच की कसक.




हादसा, मुहब्बत, फ्रस्ट्रेशन. अपना ये सच देखकर बटालवी ने मासूमियत से अतीत के लिहाफ से थोड़ा मुंह निकालकर कहा,  ''सीधी सी बात है. कविता जो है न वो एक हादसे से पैदा नहीं होती है. कुछ लोगों का ख़्याल है कि शायद कविता मुहब्बत से पैदा होती है. कुछ लोगों का ख्याल है कि कविता जब फ्रस्ट्रेशन-उदासी होती है ज़िंदगी में...तब पैदा होती है. मेरा ख्याल है कि मेरे में जो कविता पैदा हुई, उसमें सब कुछ था.''

इसी सब कुछ होने का गुरूर बटालवी में था. तभी एक बार बंबई में जब स्टेज पर मीना कुमारी शायर पढ़कर उतरीं और बटालवी स्टेज पर गए तो बोले- आज कल हर कोई खुद को कवि समझने लगा है, सड़क चलता हर कोई ग़ज़ल लिख रहा है.

इतना सब कहकर भी बटालवी कहते- मुझे नहीं पता कि मैं काहे को शायर हो गया हूं.

वजह पता न रहे और चीज़ें भी होती रहें तो हासिल हुआ कितना ज़्यादा लगता है. बटालवी की कविताएं पंजाब में गाई जाने लगीं. इतनी कि 29 साल की उम्र में लूणा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया.

ये पुरस्कार क्या दुखों के रिटर्न की तरह आया था. जिसके बारे में बटालवी ने कहा था,  ''हिंदुस्तानी ज़िंदगी में बात ये है कि क्लासेस हैं. एक श्रेणियां हैं. बँटी हुईं. उनमें कोई लोअर मिडिल क्लास का है, कोई मिडिल क्लास का है. उनका दुखांत है. हर आदमी, हर बाप, हर मां एक जुएं की तरह न..उसको पढ़ाते हैं. दस साल बाद सोचते हैं कि इसकी रिटर्न मिलेगी.''

मगर ये रिटर्न सिर्फ़ उन पन्नों और किताबों में ही नहीं आया था, जिनको सामने देखकर बटालवी कहते- तो मैं कताब उठा लूं?

बल्कि ये उन किस्सों से भी आया जो बूढ़े हो चुके बटालवी के यार सुनाते हैं.

जैसे पंजाब की सड़कों पर दौड़ता वो रिक्शावाला जो बटालवी के चेहरे से अंजान खुद बटालवी से कहता- यहां की पहचान यहां का शायर बटालवी है.

ये पहचान सिर्फ़ कागजों पर दर्ज शब्दों से नहीं आई थी. शिव कुमार बटालवी सड़क चलते कुछ कुछ सोचने लगते. फिर सड़क से कोयला उठाकर दीवार पर लिखने लगते. अगली सुबह एक दोस्त को भेजकर कहते कि दीवार पर जो लिखा है उसे लिख लाओ.


सावन में दीवार पर लिखी कविताएँ बहकर किस नदी में मिलती होंगी, इस सवाल का जवाब समंदरों से कभी तो पूछा जाएगा.

'कि पुछदे ओ हाल फकीरां दा, साडा नदियों विछड़े नीरां दा
साडा हंज दी जूने आयां दा, साडा दिल जलयां दिल्गीरां दा'


कविताओं को रचते हुए सांसों और बोतल से निकली शराब खुद पर खर्च करते हुए बटालवी भाग रहे थे. लगातार. शराब पीकर लोग लड़खड़ाने लगते थे, ये सोचकर बटालवी ने भी खूब शराब पी. इतनी शराब कि अपने दोस्तों को नशे में पहचानना बंद कर दिया.

होश में आए ऐसे ही भागम-भाग पर बटालवी कहते, ''मैं भी भागना चाहता हूं. अपने आप से दूर. क्या है. ज़िंदगी जो है, मेरा ख्याल है न. हम सब लोग एक स्लो सुसाइड..एक आराम से मर रहे लोग हैं. और वही बात है. ये हर इंटेलेक्चुअल के साथ होगा. जो भी बौद्धक है. उसकी साथ ये ट्रेजेडी, ये दुखांत रहेगा कि वो हर पल मर रहा है.''

ये पल बटालवी की ज़िंदगी में 36 बरस की उम्र में आया. स्लो सुसाइड पूरा हुआ. 'बिरहा का सुल्तान' अपने सिंहासन पर अपनी लिखी कविताएं छोड़कर शरीर लेकर गुम हो गया.


और हम उसी का लिखा सुनते हुए... 'बस कर वीरा अब यह दर्द और नहीं सुन सकती.' अमृता प्रीतम की तरह कहते हुए  'एक स्लो सुसाइड...एक आराम से मरने में' जुट गए.

''एह मेरा गीत किसे ना गाणा
एह मेरा गीत मैं आपे गा के
भलके ही मर जाणा.''

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