दिल्ली को मेट्रो की सुबहों जैसा होना चाहिए...


दिल्ली को मेट्रो की सुबहों जैसा होना चाहिए.

जब साफ वर्दी पहने CISF जवान एकटक खड़े नहीं रहते. हाथों में मेटल डिटेक्टर लिए हम सबमें वो तलाशते हुए जो कभी नहीं मिलेगा.

जैसे वो हमारी ही नकल कर रहे हों. मेट्रो की सुबहों में ये जवान अपने मोबाइलों में कोई टिकटॉक का वीडियो देख रहे होते हैं. एक दुर्लभ हँसी हँस रहे होते हैं, जो पूरे दिन लोगों की तलाशी लेते इनके चेहरे से गायब रहती है. दोपहर में स्टेशन के भीतर की जिन दुकानों पर सैंडविच के लिए भीड़ लगी होती है. मेट्रो की सुबहों में उन दुकानों के शटर के बाहर स्टील का टिफिन लिए इंतज़ार करते लोगों की भीड़ होती है. पोंछा लगाने वालों से लेकर हमारी जूठन उठाकर फेंकने वाले तक चुपचाप खुद के और गीले बालों के सूखने का इंतज़ार करने लगते हैं.



मेट्रो की सुबहों में कानों में हेडफोन लगाए लोग हुड्डा सिट्टी सेंटर के कॉल सेंटर से लौट रहे होते हैं. उनकी बंद आंखों और अच्छे कपड़ों के ठीक बगल में मुड़ी पेंट और लकड़ी के वाइपर से सख़्त हुए हाथ पूरा स्टेशन धोकर घर लौट रहे होते हैं. ये लोग पीली रेखा से दूर नहीं, उसे पार करके नीचे उतरकर काम करके लौट रहे होते हैं.  'कृपया प्रतीक्षा करें' कहने वाले पटरियों पर रहकर प्रतीक्षा न करने वाले साथ लौट रहे होते हैं. सारी व्यवस्थाओं को चूर करते हुए. फिर दिनभर व्यवस्था बनी रहती है. 'गाड़ी की गति की दिशा में पहला डिब्बा महिलाओं के लिए है.' माना कि बहुत सी रहती होंगी बची हुई. लेकिन सुरक्षा के इस ज़रूरी इंतज़ाम में कितनी गैर-ज़रूरी प्रेम कहानियां पनप ही न पाई होंगी. दुनिया कभी ईमानदार हुई तो इसका हिसाब मांगा जाएगा.

मेट्रो की सुबहों में इतनी गुंजाइश रहती है कि प्रेम करने वाले साथ बैठे हों तो घूरती निगाहें नहीं होतीं. ऐसी सुबहों में कभी नहीं सुनाई देता- आपको हुई असुविधा के  लिए खेद है. सीसीटीवी की फुटेज में सिर्फ दो लोग दिखते होंगे तो फ्रेम कितना भरा-भरा लगता होगा. हैं न?

दिल्ली के बनने में मेट्रो की सुबहें सबसे ज़रूरी हैं. नई दिल्ली स्टेशन और आनंद विहार से झोला-गठरी लिए भीड़ सब कुछ देख लेने भर वाली निगाह के साथ इन्हीं सुबहों में दिखती है. 'कहां कहां से चले आते हैं.' जैसी लाइनें कहने वाले लोग सुबह कम ही मेट्रो में दिखते हैं. रिलेक्सो की हवाई चप्पलों में पहली बार दिल्ली आए लोगों को सुबह मेट्रो में सीट मिल जाती है. दोपहर में ये लोग बैठ नहीं पाते हैं. क्योंकि दरवाज़ों से सीट तक पहुंचने में कोई 'कहां घुसा चला आ रहा है' कहने वाला खड़ा होता है. ये सारे लोग स्टेशन से बाहर निकलते हुए मशीन में सिक्का डालते हैं लेकिन फिर भी इन्हें अपनी 'शेष राशि' दिखती रहती है. पूरे दिन, पूरी रात, पूरी ज़िंदगी.

मेट्रो की सुबहों में कारखानों से मिली उलझनें नहीं होती हैं. इंतज़ार होता है. फूलों के खिलने का, लोगों के मिलने का. मेट्रो के गेट खुलने पर लोग भागते नहीं उतरते हैं. मेट्रो की सुबहों में शांति का भंग होना पता चलता है. इंसान धीरे-धीरे तैयार हो पाता है. मुहब्बतों के लिए, नए जख़्मों और खुद बनाए मरहमों के लिए.

दिल्ली को मेट्रो की सुबहों की तरह होना चाहिए.

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