मेट्रो और बेटियों में अपने हिस्से की जगह खाली करते हुए


इतनी जगह कि सब भरा-भरा दिखे.

रविवार को दिल्ली मेट्रो इतनी खाली रहती है कि भरी-भरी रहती है. मेट्रो में अक्सर अकेले दफ़्तर से लौटने वाले आदमी रविवार को मेट्रो में पिता हो जाते हैं. बेटियों के साथ कोचिंग क्लासेस का पता करते हुए घर लौट रहे होते हैं.

इन पिताओं को कोचिंग में दी जाने वाली लाखों रुपये की फ़ीस उतना नहीं सताती, जितना मेट्रो में प्रेमी के साथ खड़ी कोई लड़की डराती है. ऐसे पिताओं को डर होता है कि बेटी कहीं बाहर निकलकर हाथ से बाहर न निकल जाए.

मेट्रो के हैंडल की तरह ये पिता सवालों में लटके रहते हैं.

कुछ पिताओं की आंखों में वो आंखें चुभती हैं जो बेटियों के बढ़े हुए अपर लिप्स घूर रहे होते हैं. रविवार की शाम शायद ये बेटियां पहली बार ब्यूटी पार्लर जाएंगी. लौटकर पिता से मुंह छिपाते शरमाते हुए ये बेटियां कभी नहीं जान पाएंगी कि मां नहीं, पिता ने पहली बार ब्यूटी पार्लर का रास्ता खोला था.



इन बेटियों के पिता ऐसे किसी रविवार के बाद जब मेट्रो में जाएंगे तो पिता ही बने रहेंगे. किताब खोलकर पढ़ती किसी लड़की में अपने बेटी देखते हुए, कमर में हाथ रखवाए मुस्कुरा रही किसी लड़की में अपनी बेटी को बिलकुल न देखते हुए.

मेट्रो में खड़े लड़के इस बात से अंजान लड़कियों को देखते हुए किसी स्टेशन की ओर नहीं, पिता बनने की ओर बढ़ रहे होते हैं.

रविवार को मेट्रो में सिर्फ़ मेट्रो अनाउन्समेंट नहीं सुनाई देती. पिताओं के दोस्तों की बेटियों की लगती नौकरी, लाखों कमाते लड़के से होती शादी की बातें भी सुनाई देती हैं. बेटियाँ मेट्रो के दरवाज़ों से नहीं, पिताओं की उम्मीदों  सटकर खड़ी हो जाती हैं.

सोमवार से शनिवार तक दफ़्तर में बॉस से बचते बचाते, ईमानदारी का बोझ उठाते आदमी रविवार को थके होते हैं. वो बस बिस्तर पर पड़े रहना चाहते हैं. ज़्यादा से ज़्यादा बाथरूम का नल बदलवाना चाहते हैं. लेकिन रविवार को ऐसे आदमी पिता हो जाते हैं और बेटियों को लेकर लड़के वालों से मिलने मंदिर या रेस्त्रां चले जाते हैं.

इन रेस्त्रां में खाने का बिल इन पिताओं को ही देना होता है. 'अच्छा जी, फिर जैसा हो बताइएगा...' कहकर ये पिता बताए जाने का इंतज़ार करते हैं. मेरी बेटी सबसे प्यारी है, इस लाइन के किसी और के झूठी करार देने से बचने का इंतज़ार. ऐसे कितने ही रविवार पिता मेट्रो से अपनी बेटियों को उल्टे हाथ में पट्टे वाली घड़ी पहनवाकर कहीं जा या आ रहे होते हैं. अपने कई सालों की कुल जमा सीटीसी को एक दिन में खर्च करने को तैयार. ये पिता जानते हैं 'आपकी बेटी हमारी बेटी' लाइन का सच. इसलिए वो अपनी बेटी के पिता बने रह जाते हैं. मेट्रो से जाते और आते हुए.

मेट्रो में आरक्षित सीटें इन बेटियों के  लिए भी थीं और बूढ़े होते पिताओं के लिए भी. फिर भी पिताओं की सलाह थी कि बेटियां लेडीज़ कोच में जाएं. बूढ़ी होती दिल्ली में बिना सीट पर बैठे लौटते पिताओं को बेटियां कार देना चाहती थीं. इसलिए वो कोचिंग जा रही थीं. मगर ज़्यादातर बेटियों के हिस्से कोचिंग पूरा करने के बाद और पहली सैलरी के बीच प्री-वेडिंग फोटो शूट और करीना जैसा लहंगा आ जाएगा.

पिताओं के हिस्से आएगा, 'बिटिया बस मेट्रो स्टेशन तक छोड़ दो, आगे हम चले जाएंगे.'

पिता ऐसे ही रविवारों के गुज़रते गुज़रते चले जाएंगे. मेट्रो और बेटियों में अपने हिस्से की जगह खाली करते हुए.

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