उघारे गांधी के देश में प्रदर्शनकारियों के कपड़ों की पहचान



आग लगाने वालों की पहचान अगर कपड़ों से होती है तो पहचानने में सबसे ज़्यादा चूका कौन?

चूक न होती तो पहचाने जाते भगवा रंग के नीचे छिपे वो सांसद और मुख्यमंत्री, जिन पर दंगों को भड़काने, धमाके करवाने के कई मामले दर्ज हैं. कपड़ों से ही विरोध प्रदर्शन करने वाले पहचाने जाते तो वो धोती वाला आदमी कभी न पहचाना जाता, जिसकी ज़िंदगी विरोध प्रदर्शनों में बीती. वो जो कभी आपके विज्ञापनों में आपका आदर्श है और कभी जिसका हत्यारा आपके लिए देशभक्त. हिंसक तरीकों से विरोध प्रदर्शनों को कुचलकर अहिंसा वाले बापू को 150वां बर्थडे गिफ़्ट दिया जा रहा है.

लेकिन क्या ये बर्थडे गिफ्ट सिर्फ़ कोई एक सरकार या पार्टी विशेष दे रही है?



16 दिसंबर के क़रीब का ही वक़्त था. 2012. दिल्ली गैंगरेप के बाद जब प्रदर्शन करने स्टूडेंट्स उतरे, तब किसकी सरकार थी जिसने सर्दियों में वॉटर कैनन और लाठियां इस्तेमाल की थी? कितने ही चोटिल होकर इंडिया गेट से लौटे.

सत्ता का गुरूर ही ऐसा होता है कि हुक्मरानों को लगता है कि वो जो कर रहे हैं, सही कर रहे हैं. अगर किसी को आपत्ति है तो ज़्यादा से ज़्यादा क्या उखाड़ लेंगे? गुस्सा ज़ाहिर करेंगे तो कुचल देंगे. हर जगह यही हो रहा है. इतना दूसरे का सोचे कौन, ग़लत को ग़लत कह सकने की रीढ़ दिखाए कौन? लिहाज़ा तू भी मौन, मैं भी मौन.


मौन वो न्यूज़ चैनल भी, जो खुद को बताते हैं सर्वश्रेष्ठ या निष्पक्ष. जब पूरे देश में हज़ारों लाखों युवा सड़कों पर लाठियां खा रहे हैं, तब ये लोग पांच सितारा होटलों में अपना एजेंडा चला रहे हैं. इनके एजेंडों में दाढ़ी खजुवाते बाबा, मौलाना, नेता और अभिनेता सड़ चुकी खिचड़ी में फंफूद की तरह उगे हैं. जिन नेताओं को सड़क पर आकर लाठियों को रोक देना चाहिए था. चैनलों के कार्यक्रमों का बहिष्कार कर देना चाहिए था. वो सब ऑन एयर जाने से पहले सुंदरता का टचअप पोते हुए हैं. गनमाइक पकड़े ये सब गप्प चुआ रहे हैं.


कुछ ख़ुद को निष्पक्ष बताकर इतना संभलकर चल रहे हैं कि लगता ही नहीं, ये वही हैं जिन्होंने सैनिकों, वैज्ञानिकों कामयाबी को बिना कांपते हाथों से 'फलाना ने कर दिखाया'...'फलाने से थरथर कांपा पाकिस्तान' अपनी ख़बरों में लिख डाला था. अब जब आंखों के सामने पुलिस के लाठी मारते विजुअल्स हैं, तब ये ''स्टूडेंट्स का दावा'' जैसे वाक्य प्रयोगों पर लौट पड़े हैं. ये दावा शब्द तब इस्तेमाल नहीं होता, जब किसी चुनावी रैली से ये ऐलान होता है कि सरहद पार 300 आतंकी मार दिए. तब वो औपचारिक घोषणा मानी जाती है.

दिक़्क़त इन सरकारों या नेताओं की उतनी नहीं है. दिक़्क़त हमारी है, जिनकी वायरिंग में दो ही तार हैं. एक हिंदू, दूसरा मुसलमान. हर पार्टी इन तारों में अपनी  सहूलियतों के हिसाब से पावर मिलते ही करंट छोड़ देती है. जो रोशनी से सना होता है वो अंधेरों का कत्ल करने लगता है.

माई नेम इज ख़ान में शाहरुख़ ख़ान एक डायलॉग कहते हैं- अम्मी जान कहती हैं दुनिया में सिर्फ़ दो तरह के लोग होते हैं, अच्छे और बुरे लोग. इन लोगों ने शाहरुख़ की अम्मी जान का डायलॉग रिराइट कर दिया है. दुनिया में सिर्फ़ दो तरह के लोग- हिंदू और मुसलमान.

इसी साल अप्रैल में बांग्लादेश बॉर्डर से सटे धुबरी में एक हिंदू बंगाली परिवार से बात हुई थी. खोखनचंद से जब नागरिकता संशोधन विधेयक के ख़तरे के बारे में पूछा तो वो हँसते हुए इतना ही बोले- 'ये अच्छा हो रहा है. मुस्लिमों को तो ऐसे ही छोड़ देना चाहिए था.  मुस्लिम अगर ज़्यादा होंगे और हिंदू कम होंगे तो दिक्कत तो होगा ही. हिंदू को कोई ख़तरा नहीं होगा, मोदी सरकार सब देख रहा है.' खोखनचंद जैसे लोग सिर्फ़ सरहद किनारे नहीं हैं. देश के अंदर भी हैं. जिनकी वायरिंग में हिंदू vs मुसलमान घुस चुका है. ज़रूरत है तो बस पावर मिलते ही करंट दौड़ाने की.


करंट ऐसे दौड़ाओ कि जीडीपी की बात छिप जाए. 'देश नहीं बिकने दूंगा' के कोरस में सरकारी कंपनियों की FOR SALE वाले विज्ञापन छिपाए जा सकें. जैसे पुलवामा की आड़ में रफाल छिपा और वो जांच कभी पूरी नहीं हो सकी कि आख़िर जवानों को गृह मंत्रालय ने सिफारिश के बाद भी हेलिकॉप्टर की बजाय सड़क से क्यों भेजा, कैसे इतना बड़ा हमला हो पाया?  करंट ऐसे भी दौड़ाओ कि कोई ये न पूछे कि जिन शरणार्थियों को लाने के ढकोसले हौंक रहे हो, उनको रोटी, नौकरी, घर कौन देगा? या फिर ये शरणार्थी या उनके बच्चे भी झारखंड की बच्ची संतोषी की तरह भात-भात करते हुए एक दिन मर जाएंगे? कौन इस बात की गारंटी लेगा कि आज़ादी के 72 साल बाद भी जिस देश में अपनी जाति की वजह से लाशों को पुलों से लटकाकर श्मशान ले जाया जाता है, उस देश में दूसरे देश से आए शरणार्थियों को भी समान नज़रों से देखा जाएगा? लेकिन कौन सोचे. बस करंट दौड़ाए जाओ.

जिनकी रगों में ये करंट नहीं दौड़ा पा रहे हैं, वही निशाने पर हैं. जेएनयू, आईआईएमसी, जामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और कई कॉलेज. जहां कहीं से भी विरोध की आवाज़ उठे, उसे द्रोह मान लिया जाए. जंग जब होती है तो ख़तरा उन डॉक्टरों से भी होता है जो घायल सैनिकों को बचा रहे होते हैं. सरकारें ये बात समझती हैं. लिहाज़ा डॉक्टरों को ही मार दिया जा रहा है. ये मार कभी लाठियों से पड़ती है तो कभी फीस बढ़ाकर. 'सत्यमेव जयते' सीरियल में आमिर ख़ान ने कहा था- दिल पर लगेगी तो बात बनेगी.

ये हुक्मरान बखूबी समझते हैं.

लेकिन नैचुरली जो दिल पर लगता है वो जो रंग दिखाता है...वो जल्दी उतरता नहीं है. जैसे अभी देखने को मिल रहा है. कॉलेजों के बाहर. किताबों वाले हाथों में पर्चे पकड़े हुए. क्रूरताओं को दबाने का काम विपक्ष में बैठी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं करती है.

हम करते हैं. सब एकजुट होकर या कई बार कोई एक अकेला. ओवर इमोशनल होकर. ओवर इमोशनल होकर अगर मुझे मेरी रीढ़ सीधी लग रही है तो कुछ देर चलने दो. गिरूंगा तो सीधा गिरूंगा. यूं ही ओवर इमोशनल होकर एक आम से आदमी को हम सबने दिल्ली की ऐसी ही सर्दियों में मुख्यमंत्री बनवा दिया था. आंख में आंसू लिए.

एक बार फिर तनिक इमोशनल हो जाना है.  फिर चाहे वो टोपी लगाता हो या टीका. ये हिंदुस्तान रहीम और रसख़ान का भी उतना है, जितना सूरदास और मीरा का. हमें बस अब अपना-अपना नुकीला कलम और मुट्ठी लिए वो सारे ढोल फाड़ देने हैं, जिन पर हिंदू vs मुसलमान लिखा हो.

क्योंकि कभी न कभी वो सब पहचाने जाते हैं, जो आग लगाते हैं और जो आग बुझाते हैं.

लिबास का क्या है जी? 'हम तो फ़कीर आदमी हैं...झोला उठाकर चल देंगे.'

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