ये दिल्ली ऐसी नहीं है यार...


सड़कों से गुज़रने में सबसे ज़्यादा रेहड़ी और रिक्शावालों को खाली खड़े देखना चुभता है.

Maths में फेल हुआ था लेकिन बचपन से ये हिसाब रोज़ लगाता रहा कि जो 5 रुपए का नारियल का टुकड़ा बेच रहा है, जो 15 रुपए में रिक्शा चला रहा है, दिन भर में कितना कमा लेगा. इन लोगों की कमाई बेहद कम होती है. इन लोगों की कोई जाति या धर्म नहीं होता है, बस मजबूरी होती है. ये लोग घंटों दिनों खड़े रहते हैं.

अक्सर यूँ ख़ाली खड़े रहते हुए ये लोग बहुत लोगों के काम आते हैं. कभी पुलिस वालों की लाठी खाने के तो कभी किसी कार या मोटर साईकिल वालों की गाली खाने के. कुछ इलाक़ों में ये उन लोगों को मर्द साबित करने के काम भी आते हैं जिनकी कुंठा, गुस्सा अपने बॉस या ज़्यादा रईस लोगों पर निकल नहीं पाता है.

ये लोग आज जाफ़राबाद, चाँदबाग़ की ही तरह बेवजह मारे जाते हैं. कभी इनके ई-रिकशे जलाए जाते हैं तो कभी पूरी रेडड़ी उलट दी जाती है. किसी के दिमाग में कभी ख़्याल नहीं आता कि किसी ने क्या उधारी ली होगी, आज रात कोई क्या खाएगा. बस सब ग़ुस्से की आग में ऐसे उबल रहे हैं कि जब तक दूसरे के ज़ख़्म और आँसू नहीं देख लेंगे तब तक ठंडक नहीं मिलेगी.

इस ग़ुस्से को हर कोई ज़ाहिर कर रहा है. वो लोग भी जो फ़ुटेज की ख़ातिर जाफ़राबाद में बीच सड़क आकर बैठ गए. तब जबकि वो ये जानते थे कि इस इलाक़े की आबादी इतनी मिक्स है कि ज़रा सी चिंगारी बड़ी आग लगा सकती है. इस आग के बड़े दोषी कपिल मिश्रा जैसे लोग भी हैं जो कैमरे पर अल्टीमेटम देते हैं और वो लोग भी जो हथियारों को ब्यूटीफुल बताने और ग्रैब देम बाय पुस्सी कहने वाले ट्रंप के स्वागत में जुटे हैं.

PC: AFP


गांधी की 150वीं जयंतीवर्ष को ये देश क्या खूब सेलिब्रेट कर रहा है.

सड़कों पर लोग मारे जा रहे हैं. लाठी लेकर पत्थर खाते कॉन्स्टेबल के परिवार से कभी बात कीजिएगा. इनकी कोई खास लाइफ नहीं होती है, लेकिन जो लाइफ होती है उससे छीनने का हक किसी को नहीं है.

उन सिरफिरे जमनापार के लौंडों को भी नहीं, जो किसी पार्टी से ताल्लुक नहीं रखते. जिन्हें न NRC-CAA के समर्थन से मतलब है न विरोध से. वो बस आज ये कहकर घर से निकले होंगे- 'चल भइये इनो की फाड़ के रखते हैं सालों की.'

यहां के लड़कों को उस क्लास से बदला लेना है जो 70 रुपये का पानी पीते हैं, जो अमीर दिखते हैं. ये गुस्सा ये अमीरों पर नहीं निकाल पाते हैं इसलिए अपने जैसों पर निकाल देते हैं.

नतीजे में मारा जाता है कोई ऑटोवाला, जिसकी दो महीने पहले शादी हुई थी. कोई पुलिसवाला, जिसने अभिनंदन जैसी मूंछें रखी थीं. शायद ये सोचकर कि कभी कहीं फंसा तो अभिनंदन की तरह लौट आएगा. लेकिन वो नहीं लौट पाएगा. कभी नहीं.


जहां आप आदर्शों की उम्मीद करते हैं, वहीं आप का दिल दुखता है. अरविंद केजरीवाल से बड़ी उम्मीद थी. लेकिन ये आदमी भी नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी जैसा निकला. जब दिल्ली जल रही थी, तब ये आदमी बजरंगबली के ट्वीट कर रहा था. सड़कों के धरने से उठे आदमी को एक बार ख्याल नहीं आया कि एक बार सड़क पर उतर जाए. कोई पत्थर माथे पर लगा तो ज़्यादा से ज्यादा क्या होगा? खून निकलेगा. जान जाएगी. यार वो तो वैसे भी चली जाती, अगर मुझ जैसे दिल्ली के लौंडे तुम जैसों को सीरियसली न लेते. पड़े रहने देते. दिल्ली ने केजरीवाल का साथ दिया और केजरीवाल ने सत्ता का?

वो सत्ता, जो सिर्फ़ बहुमत का हिसाब रखना जानती है. सड़क किनारे खड़ी रेहड़ियों, ऑटोवालों, पेट्रोलपंप पर खड़े लोगों पर किसी का ध्यान नहीं जाता. किसी का नहीं. दिल्ली में न जाने कितने परिवार आज रो रहे होंगे. अस्पतालों के इमरजेंसी वॉर्ड चीखों से भरे होंगे. विरोध बनाम समर्थन के शोर में कुछ सुनाई नहीं दे रहा.

मेट्रो से लौटते हुए अनाउंसमेंट पर ध्यान गया.

'यदि कोई अपने परिजन से बिछड़ गया है तो मेट्रो कर्मचारी और हेल्पलाइन पर सम्पर्क करें.' आज जो लोग मारे गए, उनके परिवार किसी से भी सम्पर्क कर लें लेकिन जो परिजन बिछड़े हैं, वो कभी नहीं मिलेंगे. कभी भी नहीं.

ये दिल्ली ऐसी नहीं है यार. इसको ऐसा मत करो यार.

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