सुख लौटने में अब कितना विलंब...


दिल्ली मेट्रो में क्या अब भी लड़कियाँ कोने में खड़ी होती होंगी? किताब पढ़ती हुईं. फ़ोन पर प्यार बतलाती या रोते हुए बताती हुईं कि वो किसी से कितना प्यार करती हैं और ‘कसम से’ झूठ नहीं बोल रही हैं.

मेट्रो के वो सारे कोने खाली होंगे क्या? इंतेज़ार करते हुए कि जब दरवाज़े दाईं ओर खुलें तब बाईं ओर के कोने बेफिक्र रहें…एक बार फिर से.

मेट्रो के कोनों और यमुना बैंक स्टेशन ने दिल्ली के लड़के लड़कियों को खूब स्पेस दिया. पर जब अब एक अनचाहा स्पेस बढ़ गया है, तब लगता है कि कान में लीड लगाए गाने सुनते हुए कब देखूँगा-


स्टेशन में गले मिलते दोस्तों को…

सोफ़िस्टिकेटेड सी इंग्लिश मीडियम लड़कियों को…

पुरानी दिल्ली स्टेशन पर नीले पीले रंग के बैग और साइड से कमर पर लटकाए बच्चों को लिए हुए सिटी लाइट्स में घुसते हुए प्रवासियों को, जिनको घूरते लोगों की आँखों में घूरना मेरा पसंदीदा काम है.

कब देखूँगा उन सारे पीले पोस्टर्स को फटा हुआ जिसमें ठीक उसी जगह ‘यहाँ बैठना मना है’ लिखा होता है जहां बैठना सबसे ज़रूरी होता है.

कोई देखना चाहे तो देख ही ले बराबर से फ़ोन की स्क्रीन. या ‘सख़्त लौंडा’ बनते हुए बराबर बैठी लड़की को ना देखने की कोशिश करता कोई लड़का.

ये ख़्याल कितना अजीब है कि कितने सारे घूरने वाले अंकल और आंटियाँ अब मेट्रो में शायद कभी ना चढ़ पाएँ. “कितना इंतेज़ार करूँ, कब से खड़ा हूँ” कहने वाले कितने लोग अपनों को इंतेज़ार करते हुए छोड़ गए होंगे.

मेट्रो के वो सारे कोने कितने चुभेंगे. वो कोने अब कभी नहीं भर पाएँगे.

कितनों के इंतेज़ार के कितने ही दरवाज़े अब कभी किसी ओर नहीं खुलेंगे. तस्वीर में देखा कि इंडिया गेट के पास दिल्ली ख़ुद रही है. कितनी सच्ची तस्वीर है.

आज दिल्ली में बारिश हुई है. मन इतना ख़ुश हुआ था. बालकनी में बैठकर पूरी बारिश देखी.

फिर अभी ये लाइन लिखते लिखते ख़्याल आया- घंटों क़तार में लगी लाशें पूरी जल भी नहीं पाई होंगी.

यमुना से गुजरती मेट्रो की खिड़कियाँ घाट किनारे जलती आग वाले व्यू से कितनी डरावनी लगती होंगी.

मन कुछ नहीं कर सकता तो बस यही सोचता है कि एक रोज़ कोई अनाउन्समेंट होगी और बता दिया जाएगा कि सुख लौटने की यात्रा में अब कितना विलम्ब है? 


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