कमाल ख़ान और अब के राम, रावण...

 जीते जी वो एक कहानी, जो हमारे जाने के बाद भी लोगों को याद रहे.  

यादें यूं तो शातिर होती हैं. पर आसान होता किसी के जाने के बाद अंतिम लिखा, अंतिम दिखा या अंतिम कहे और किए का ज़िक्र करना. मुश्किल होता है कोई एक काम जो अंतिम ना हो या पहला ना हो. वो बीच में कहीं हुआ हो. अपनी कोई ख़ास इम्पॉर्टेंस ना लिए हुए.... सबसे ख़ास बन जाते हुए.

हम में से कई लोगों के लिए कमाल ख़ान की वो एक कहानी 'कमाल के राम' रहेगी.  कितना सुंदर लिखा, कितना सुंदर सोचा और जिया हुआ. हम में से बहुत लोगों ने ये रिपोर्ट कई बार देखी होगी. इतनी गहरी बात इतनी आसानी से कह देना वाकई मुश्किल होता है.

लेकिन इन सबके बीच कुछ बातें मन में आती हैं.

कमाल ख़ान जैसे काबिल पत्रकार, जिनके काम को इंडस्ट्री और एनडीटीवी देखने वाला एक तबका जानता है. पढ़ा लिखा तबका सम्मान भी देता है. 

मगर इसके बावजूद अगर आप आज भी किसी कॉलेज स्टूडेंट से पूछें तो वो कमाल ख़ान या उन जैसों का नाम नहीं लेगा. ये उन एंकर्स का नाम लेंगे, जो सिवाय चिल्लाने या एक भी प्यारी,  सुंदर बात कहने या लिखने से कोसों दूर हैं. 

लोकप्रियता की सेल्फी में काबिल लोग ब्लर आते हैं. जिनका उगला ज़हर ही पहचान है, ऐसे लोगों के फॉलोअर्स लाखों में होते हैं. कमाल ख़ान के ट्विटर फॉलोअर्स देखे तो 70 हज़ार भी नहीं हैं. ये कोई पैमाना भी नहीं है. पर क्यों ऐसे लोगों के काम को हम उतनी फुटेज नहीं देते हैं, जितनी किसी घटिया एंकर को ट्रोल करने में अपनी जान लगा देते हैं.

खराब काम को खराब बताने जितना ज़रूरी क्यों नहीं है किसी अच्छे के काम को अच्छा बताना? 



हम जब कॉलेज से निकले थे, तब भी और अब भी... कोई अंजना ओम कश्यप बनना चाहती थी तो कोई अर्नब गोस्वामी तो कुछ रवीश कुमार. 

कमाल ख़ान, पी साईनाथ हम में से कोई नहीं बनना चाहता. मेहनत लगती है.

अकसर देखता हूं कि कई बार लोग ट्विटर या फेसबुक पर अपने फेवरेट पत्रकार में ऐसे लोगों के नाम लेते हैं, जिनकी आखिरी ओरिजनल बाइलाइन स्टोरी कब आई थी ये फेवरेट पत्रकार को भी नहीं याद होगा.  दूसरे के लिखे को पढ़ देने वालों को पत्रकार और स्टार मानने का चलन है.

रवीश कुमार ने लिखा है,  ''देश की मिट्टी में अब इतने कमज़ोर लोग हैं कि उनकी रीढ़ में दम नहीं होगा कि अपने-अपने संस्थानों में कमाल ख़ान पैदा कर दें. वर्ना जिस कमाल ख़ान की भाषा पर हर दूसरे चैनल में दाद दी जाती है उन चैनलों में कोई कमाल ख़ान ज़रूर होता.''

इन सब बातों को छोड़ भी दिया जाए. तो अपनी रिपोर्ट में पढ़ी चौपाइयों, शैली और कुछ शानदार कही लाइनों के साथ कमाल ख़ान मुझ जैसे कई लोगों को याद रहेंगे. क्योंकि हमारी उम्र के लोगों ने अब जैसे राम को जाना है. राम वैसे नहीं थे, ये बात याददाश्त में सबसे प्रमुखता से कमाल ख़ान ने बताई थी. 

''राम दरबार की झांकी. हमने राम को ऐसा ही जाना था. मर्यादापुरुषोत्तम. सौम्य. शालीन. गंभीर. वीर और त्यागी. लेकिन वीएचपी ने उन्हें ऐसा बनाया- आक्रामक, हमले को आतुर.'' 

शायद ये हमारी अंदर की कंडीशनिंग ही है कि हमें रामायण की चौपाई पढ़ता कमाल भाता है या कलाम.

कमाल और कलाम से इतर मुसलमानों के लिए हमने नए राम खोज लिए हैं. धनुष उठाए, आक्रामक. जो सब कुछ हैं बस 'कमाल के राम' नहीं हैं.

टिप्पणियाँ

  1. हम लखनऊ वालों के लिए कमाल सर हमारा नाज़ थे। जब कोई उनकी तारीफ करता था तो लगता था वो हमारे शहर पर मुहब्बत लूटा रहा है।

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